Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 6
Author(s): L C Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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शब्द-अद्वैतवाद का समालोचनात्मक विश्लेषण : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में 81 और वादिदेव' की भाँति 'तत्वसंग्रह' के टीकाकार कमलशील ने थी यही कहा है। इस प्रकार अविद्या को अवस्तु मानना न्यायसंगत नहीं है । शब्द-ब्रह्म से भिन्न अविद्या को वस्तु मानना भी अतर्कसंगत है
दोषों के कारण शब्द-ब्रह्मवादियों का यह अभिमत कि अविद्या वस्तु रूप है, तर्कशील नहीं है; क्योंकि अविद्या को वस्तु मानने पर शब्द-अद्वैत मत में निम्नांकित दोष आते हैं---
१. पहला दोष यह आता है कि स्वीकृत सिद्धान्त का विनाश हो जायेगा, क्योंकि
अविद्या और ब्रह्म दो की सत्ता सिद्ध हो जायेगी। २. दूसरा दोष यह है कि शब्द-ब्रह्म की भाँति अविद्या भी वस्तु रूप है, अतः दो तत्वों के सिद्ध हो जाने से द्वैत की सिद्धि और अद्वैत का अभाव हो जायेगा। अतः
अविद्या को ब्रह्म से भिन्न मानना ठीक नहीं है । अविद्या को शब्द-ब्रह्म से अभिन्न मानने में दोष
अविद्या शब्द-ब्रह्म से भिन्न नहीं है; यह सिद्ध हो जाने पर शब्द-अद्वैतवादी उसे शब्दब्रह्म से अभिन्न नहीं मान सकते; क्योंकि ऐसा मानने से या तो अविद्या की तरह ब्रह्म असत्य हो जायेगा या ब्रह्म की तरह अविद्या सत्य हो जायेगी ।
उपर्युक्त दोनों विकल्प युक्तियुक्त नहीं हैं। क्योंकि अविद्या की तरह ब्रह्म के मिथ्यात्व रूप हो जाने से शब्द-अद्वैतवाद में कोई तत्व पारमार्थिक सिद्ध नहीं हो सकेगा। अतः यदि ब्रह्म की भाँति अविद्या शब्द-ब्रह्म से अभिन्न होने के कारण सत्य रूप मान ली जाय तो अविद्या मिथ्याप्रतीति का कारण कैसे मानी जा सकती है ? क्योंकि यह अनुमान प्रमाण से सिद्ध है कि जो सत्य रूप होता है, वह मिथ्याप्रतीति का हेतु नहीं होता, जैसे-ब्रह्म से अभिन्न अविद्या भी सत्य होने से मिथ्याप्रतीति का कारण नहीं हो सकती। अतः अविद्या को शब्दब्रह्म से अभिन्न मानना भी ठीक नहीं है ।
यहाँ एक बात यह भी है कि घोड़े के सींग की तरह अविद्या अवस्तु अर्थात् असत् होने से शब्दब्रह्म से बलशाली नहीं है । जो बलशाली होता है, वही निर्बल के स्वभाव को ढक लेता
१. न · · · शब्दब्रह्मणोऽविद्यासामर्थ्याभेदेन प्रतिभासो ज्यायान् । अति प्रसक्ते . . .।
--स्या० २०, पृ० ९९-१००। २. अथ · · ब्रह्मणः सा न किञ्चित् करोतिति न युक्तमविद्यावशात् तथा प्रतिभासनम्
--1० सं० पञ्जिका, का० १५१, पृ० ९५ । ३. (क) अथ वस्तु; तन्न; अभ्युपगमक्षतिप्रसक्तेः -न्या० कु० च०, १/५ पृष्ठ १४१ ।
(ख) स्या० र०, १/७, पृष्ठ १०० । ४. वही। ५. (क) द्रष्टव्य (क) न्या० कु० च०, १/५, पृष्ठ १४३ । (ख) स्या० र०, १/७, पृष्ठ १०० ।
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