Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 6
Author(s): L C Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
View full book text
________________
110
Vaishali Institute Research Bulletin No. 6
परलोक में विनाशकारी तथा निन्दनीय है । हिंसा आदि पाप दुःख रूप है। समस्त प्राणियों के प्रति ऐसी भावना की किसी भी प्राणी को दुःख न हो। गुणवान् पुरुषों को देखकर हर्षित होना और अपनी भक्ति प्रकट करना । दुःखी प्राणियों को देखकर एवं उहृत लोगों में मध्यस्थ भाव रखना'। अहिंसा व्रत के पाँच अतिचार भी बतलाए गए है-बध, पदच्छेद, अतिभार आवेषण, और अन्नपान निरोध ।
तत्त्वार्थसूत्र में प्रमाद के योग से हो हिंसा स्वीकार की गई है। अनजान में हुई हिंसा को उनके फल से मुक्त बतलाया गया है तथा हिंसा व विचार करने पर भी हिंसा का दोषी बतलाया गया है।
जैन परम्परा में किमी प्रकार मांसाहार को स्वीकार नहीं किया गया है। न केवल साधु अपितु गृहस्थ भी आजतक इसका पालन कर रहे हैं। धर्मानन्द कौशाम्बी ने आचारांग एवं भगवती सूत्र के कुछ उद्धरणों के आधार पर यह प्रतिपादित किया था कि जैन साधु एवं साध्वियाँ भी मांस ग्रहण करती थी। श्री गोपालदास जीवाभाई पटेल ने श्री महावीर स्वामीनो मांसाहार नामक लेख में भगवती सूत्रों के आधार पर भगवान् महावीर के मांस भक्षण की उल्लेख किया है। इन सन्दर्भो की जैन समाज में तीव्र प्रतिक्रिया हुई थी। विद्वानों ने अपने स्पष्टीकरण दिए कि मूल अंशों के अर्थ भिन्न है। जैसे कबोरा का अर्थ कबूतर नहीं है अपितु भूरे रंग का एक फल कूष्मांड है। कुक्कुट का अर्थ मुर्गा या मुर्गी न होकर बिजोरा नामक फल है । मांस शब्द फलों के भीतर गुदे के लिए व्यवहृत होता है। अस्थि का अर्थ हड्डी नहीं बल्कि फलों के बीज और गुठलियाँ है। इन रूप सन्दर्भो को समझने के बाद कौशाम्बीजी ने अपने मत में सुधार कर लिया था। इस विवाद के बोच आचार्य विनोवाभावे ने भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। कहा था कि ऋषि मांस नहीं खाते थे मैं ऐसा नहीं मानता, परन्तु भगवान् महावीर का जीवन, उनके उपदेश सूक्ष्म अहिंसा का पालन तथा आत्यन्तिक सत्य के लिए तनिक भी चलित न होने की उनकी मनोवृत्ति देखते हुए मैं निःसंदेह मानता हूँ कि भगवान् महावीर कभी मांसाहार कर ही नहीं सकते। मैं पंडितों के साथ चर्चा करना नहीं चाहता, किन्तु उनके जीवन से विसंगत ऐसा अर्थ वे क्यों जोड़ सकते होंगे यह
१. मैत्री-प्रमोद कारुण्य-माध्यस्थानी च पत्त्व-गुणाधिक मिलश्यमानाविनेयेषु ॥ वही ७।११ २. वही ३. तत्वार्थसूत्र (पं० कैलाश चन्दशास्त्री) पृ० १६२ । ४. भगवान् बुद्ध जीवन और दर्शन (धर्मानन्द कौशाम्बी) । ५. प्रस्थान गुजराती मासिक पत्रिका, कार्तिक सं० १९९५, वर्ष १४ अङ्क में प्रकाशित लेख । ६. जैन धर्म और मांसाहार परिहार शाह रतिलाल मकाभाई अनु० प्रो० डॉ० अमरसिंह ।
जगराम लोधा, प्रकाशक हिंसा निरोधक संघ अहमदाबाद-१। ७. भगवान् बुद्ध जीवन और दर्शन, पादटिप्पणी, पृ० २२६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org