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राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त और उनकी अमरकृति 'साकेत' 181 जाता है। साथ ही देवर और भाभी का सात्विक परिहास भी 'साकेत' में देखते ही बनता है। उर्मिला को अपने विरहकाल में उस दिन की सुधि आती है जिस दिन शत्रुघ्न तथा उसके बीच इस प्रकार की विनोदपूर्ण वार्ता हुई थी
लाई सखि मालिनें थीं डाली उस बार जब, जम्बू-फल जीजी ने लिये थे, मुझे याद है ।। मैंने थे रसाल लिए देवर खड़े थे पास, हँसकर बोल उठे निज निज स्वाद है ? मैंने कहा 'रसिक, तुम्हारी रुचि काहे पर' ?
बोले 'देवि दोनों ओर मेरा रसवाद है'। भ्रातृत्व का एक रूप हम राम-लक्ष्मण में पाते हैं। राम बड़े भाई होने के कारण सागर की भाँति शान्त और गम्भीर हैं । लक्ष्मण भाई के अपकारी के प्रति विषधर की भाँति फुफकार करने लगते हैं, किन्तु राम के समझाते ही मंत्रमुग्ध नागराज की भाँति उनका मस्तक झूक जाता है । राम के दूसरे भाई भरत हैं, जिनमें साधुता का चरम विकास देखने को मिलता है। वे जो कुछ करते हैं, सब राम की आज्ञा से । राम को भी अपने सभी अनुजों के आग्रह की रक्षा करनी पड़ती है, अन्यथा उनके बड़े होने से लाभ क्या !
स्वामी और सेवक के सम्बन्धों की भी भव्य झाँकी हमें 'साकेत' में मिलती है । यद्यपि सुमन्त राजपरिवार के सेवक हैं तथा राम-लक्ष्मण उन्हें 'काका' कहकर पुकारते हैं। कितना उदात्त सम्बन्ध है यह ।
'साकेत' में विरह-वर्णन 'साकेत' एक विरह-काव्य है। इसकी तो रचना ही उर्मिला के विरह-चित्रण के लिए हई है। चारों बहिनों में अकेली उर्मिला ही ऐसी हतभागिनी है, जिसे विवाह के तुरत बाद ही प्रिय के विश्लेष से जनित दुःख को भोगना पड़ता है। एक नवोढ़ा का पति उससे दूर चला जाय और थोड़े-बहुत दिन के लिए नहीं, पूरे चौदह वर्ष के लिए, तो उसके हृदय की जो व्यथाभरी कहानी होगी उसे केवल अनुभव ही किया जा सकता है, शब्दों द्वारा उसकी अभिव्यक्ति कदापि संभव नहीं। कवि ने वियोग से कृश बनी हुई उर्मिला का चित्र खींचते हुए लिखा है
मुख-कान्ति पड़ी पीली-पीली,
आँखें अशान्त नीली-नीली, क्या हाय यही कृश काया,
या उसकी शेष सूक्ष्म छाया ? इस विरहिणी बाला को अब केवल इतने से ही सन्तोष है
आराध्य युग्म के सोने पर, निस्तब्ध निशा के होने पर,
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