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राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त और उनकी अमरकृति 'साकेत' 183 'साकेत' में गुप्तजी ने प्रकृति के गत्यात्मक चित्र खींचे हैं। एक उदाहरण द्रष्टव्य है
सखि निरख नदी की धारा ढलमल ढलमल चंचल-अंचल झलमल झलमल तारा ! निर्मल जल अन्तस्तल भर के उछल उछल कर छल छल कर के थल थल तर के, कल कल धर के
बिखराता है पारा !
सखि निरख नदी को धारा । ऐसे ही बहुत से सुन्दर चित्र 'साकेत' में चित्रित हुए हैं।
'साकेत' का सांस्कृतिक पृष्ठाधार 'साकेत' का कवि भारतीय संस्कृति का परम उपासक है । यही कारण है कि इस महाकाव्य में भारतीय संस्कृति की भव्य झाँकी प्रस्तुत की गई है। भारतीय संस्कृति का मूलभूत तत्व है त्याग और वह 'साकेत' के सभी प्रधान पात्रों राम, भरत, उर्मिला में कूटकूटकर भरा पड़ा है। त्याग के लिए कर्म अनिवार्य है । 'साकेत' का एक-एक पात्र कर्तव्यशीलता का परिचय देता है। शत्रुघ्न की उक्ति है---
रूठा और अदृष्ट मनाने की बातों से,
अब मैं सीधा उसे करूँगा आघातों से । जीवनादर्श के उपरान्त धार्मिक आदर्श को लीजिये । 'साकेत' का कवि वैदिक धर्म का अन्यायी है । इसलिए वह राम के मुंह से कहलवाता है
उच्चारित होती चले वेद की वाणी, गूंजे गिरि-कानन सिन्धु पार कल्याणी !
अम्बर से पावन होम धूम लहराये । सामाजिक आदर्शों की प्रतिष्ठा करते हुए कवि ने प्रत्येक व्यक्ति को दूसरों की सापेक्षता में देखने का संदेश दिया है
केवल उनके ही लिए नहीं यह धरणी, है औरों को भी भार-धारिणी भरणी । जनपद के बन्धन मुक्ति हेतु हैं सबके,
यदि नियम न हो, उच्छिन्न सभी हों कबके । साकेतकार मूल वर्ण-व्यवस्था की प्रतिष्ठा करने के पक्ष में है, इसलिए उसे परशुराम की मुनिता पूजनीय है, कोरी द्विजता नहीं
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