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Vaishali Institute Research Bulletin No. 6
"अहिंसाय भूतानाम् धर्म प्रवचनं वृतम् ।
यः स्यादहिंसा संयुक्तः स धर्म इति निश्चयः ॥"' इस प्रकार अहिंसायुक्त धर्म ही ग्राह्य माना गया है। श्रमण धर्म अहिंसा का कट्टर समर्थक है। अहिंसा श्रमण धर्म की सबसे बड़ी विशेषता है। अहिंसा बौद्ध धर्म के द्वारा भी प्रशस्य-प्रश्रेय मानी जाती है। महावीर के पूर्व; तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने अपने चतुर्याम धर्म में इसको सर्वोच्च स्थान प्रदान किया है। जैन पण्डितों के अनुसार तीर्थंकर नेमिनाथ महाभारत काल में श्रमण संघ के नेता थे, जो बाइसवें तीर्थकर माने जाते है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि यह परम्परा नेमिनाथ के समक्ष श्रीकृष्ण से सैकड़ों वर्ष पूर्व ही प्रचलित थी, अर्थात् अतिपुरातन काल से लेकर आज तक अहिंसा को महान् धर्म के रूप में मान्यता प्राप्त है। महाभारत में श्रीकृष्ण ने कहा है कि उत्तम यज्ञ वह है, जिसमें किसी भी जीव की हत्या न हो, प्रत्युत जिस यज्ञ के द्वारा मनुष्य अपने को परोपकार-परमार्थ में लगा लेता है। लौकिक वैदिक यज्ञ हिंसा एवं अहिसा के ऊहापोह से घिरा हुआ दिखलाई पड़ता है। वैदिक धर्म का जनक वेद एक ओर अहिंसा की महिमा को स्वीकार करता हैं, तो दूसरी ओर याज्ञिक हिंसा को भी । जहाँ एक ओर ब्राह्मण ग्रन्थों में ‘मा हिंसात् सर्वभूतानि' की घोषणा मिलती है, तो वहीं दूसरी ओर मोक्ष एवं स्वर्ग की परिकल्पना करने वाले धार्मिक व्यक्ति के लिए यज्ञादि अनुष्ठानार्थ प्रोत्साहित कर जानवरों की बलि का निर्देश भी प्राप्त होता है। जैन शास्त्रों में उपर्युक्त कथनों को लेकर कई स्थलों पर श्रमण-ब्राह्मण विवाद की स्पष्ट चर्चा है, जिनमें ब्राह्मणों पर श्रमणों की विजय है । बौद्ध साहित्य में भी श्रमण-ब्राह्मण के इस सर्प-नकुल संघर्ष का उल्लेख मिलता है, अर्थात् अहिंसा, निवृत्ति-परक धारणा आदि श्रमण धर्म की मूल विशेषता के रूप में परिग्राह्य हैं । परन्तु, ब्राह्मण धर्म में इनका विरोध झलकता है।
श्रमण धर्म की दूसरी परिगण्य विशेषता है-तप और संयम । श्रमण धर्म के कठोर नियम के अनुपालन के योग्य बनने के लिए तप एवं संयम को आवश्यक माना गया है। इनके अभाव में सिद्धि अकाल्पनिक है। इसका सर्वाधिक कठोर विश्वास जैन धर्म में मिलता है । 'मज्झिम निकाय' के 'महासिंहनाद सूत्त' में चार प्रकार के तप बतलाये गये हैं, परन्तु ये सभी क्रमशः कठोर से कठोरतम है । ये चार तप हैं-तपस्विता, रूक्षता, जुगुप्सा और प्रतिविक्तता । तपस्विता में नग्न रहता, पाणि-पात्र होना, काँटों पर नींद लेना आदि कठोर व्रतों का अनुपालन बतलाया गया है। रूक्षता का अभिप्राय शरीर पर धूल आदि लगाये रहना है। पानी की बूंद पर भी कृपा-करुणा प्रदर्शित करने के भाव को जुगुप्सा तथा वन में अकेले रहने की स्थिति को प्रतिविक्तता कहा गया है। वेदों के गार्हस्थ्य-प्रधान युग में भी ऋषि वैराग्य, अहिंसा एवं तपश्चर्या के कठोर व्रतों का पालन करते थे, जिनमें ऋषभदेव का नाम आज भी हम आदर से लेते हैं। लेकिन, ब्राह्मण धर्म को भोगवादी या प्रवृत्तिवादी बतलाया गया है। यह जीवन के
१. महाशान्ति-१०९।१२ ।
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