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प्राचीन भारतीय जैन समाज में नारी शिक्षा
जयन्त कुमार एक समय मैडम कैम्पन से बातों के क्रम में नेपोलियन ने पूछा था, "शिक्षा का पुराना ढंग बहुत रद्दी मालूम पड़ता है। किस कमी की पूर्ति होने से मनुष्यों को ठीक-ठीक शिक्षा मिल सकती है ?" मैडम ने उत्तर दिया था, "माताओं की त्रुटियों की पूर्ति से।" इस उत्तर का नेपोलियन पर बहुत असर पड़ा और उसने कहा- "सम्पूर्ण शिक्षा का सार इसी एक शब्द में भरा पड़ा है। माता को शिक्षित बनाओ, जो बच्चों का पालन जाने । अत्यन्त प्राचीनकाल में ही जैन मनीषियों को नारी की शक्ति का अनुमान हो गया था। सम्भवतः इसी कारण उन्होंने नाटी को शिक्षित करने का यथासंभव प्रयास किया।
यद्यपि जैन वाङमय में नारी शिक्षा से सम्बन्धित तथ्यों पर प्रत्यक्ष रूप से कोई विचार नहीं किया गया है, तथापि जैन आगमों में एवं कथा-साहित्यों में यत्र-तत्र नारी शिक्षा की झलक दृष्टिगोचर होती रहती है । "अनेक ऐसी जैन कथाएँ हैं, जिनसे स्पष्ट होता है, कि अनेक विधाओं में निपुण होकर नारियों ने धर्म प्रचार किया और सांसारिक माया का त्याग कर मानव सेवा को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया था। भगवान महावीर की शिष्या 'चन्दनवाला' इसी ही एक स्त्री रत्न थीं।
नारियों के शिक्षारम्भ संस्कार पर आदिपुराण के अतिरिक्त लगभग सभी जन ग्रन्थ मौन हैं "बौद्ध एवं जैन आगमों में नारी जीवन" जैसा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ भी इनके शिक्षारम्भ संस्कार पर प्रकाश डालने में असमर्थ है। आदिपुराण के अनुसार "अपनी पुत्रियों को विद्या का महत्त्व समझाकर भगवान् वृषभदेव ने विशाल स्वर्ण के पट्टे पर अपने चित्रों में श्रुतदेवता का पूजन कर स्थापन किया। फिर दोनों हाथों से अ, आ, इ, ई आदि अक्षर मालिका लिखी तथा अनुक्रम से इकाई-दहाई आदि अंकों के द्वारा संख्या का ज्ञान कराया। इस प्रकार उन दोनों पुत्रियों को भगवान ने लिखने का उपदेश दिया।"
प्राचीन भारतीय मनीषियों ने शिक्षारम्भ की उम्र पाँच वर्ष स्वीकार की है। 'आदिपुराण में पांच वर्ष की आयु में लिपिसंस्कार करने का उल्लेख है, जिसमें स्वर्ण पट्टे पर अक्षर ज्ञान प्रारम्भ कर दिया जाता था । शास्त्रों का अध्ययन यहाँ भी उपनीति क्रिया के १. डा. कैलाशचन्द्र जैन, हमारी शिक्षा पद्धति, दिल्ली, १९३२ ई०, पृ० १४-१५ । २. श्रीचन्द्र जैन, जैन कथाओं का सांस्कृतिक अध्ययन, जयपुर, १९७१ ई० पृष्ठ ८० । ३. पं० लालाराम जैन द्वारा अनुवादित, जिनसेन का आदिपुराण, इन्दौर, १९७३ वि० सं० ।
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