Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 6
Author(s): L C Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No. 6 संसार में कविता अनेकों क्रांतियाँ है कर चुकी । मुरझे मनों में वेग की विद्युत् प्रभाएँ भर चुकी । है अन्ध-सा अन्तर्जगत कवि-रूप सविता के बिना।
सद्भाव जीवित रह नहीं सकते सुकविता के बिना। गुप्तजी कविता में भद्रता, सुरुचि और आदर्श के समर्थक हैं। नारी के विविध अंगों और उनकी रतिक्रीड़ाओं में कविता की इतिश्री माननेवाले रीति-कवियों की निन्दा करते हुए उन्होंने लिखा है
करते रहोगे पिष्टपेषण और कब तक कविवरो कच, कुच , कटाक्षों पर अहो ! अब तो न जीते जी मरो। है बन चुका शुचि अशुचि अब तो कुरुचि को छोड़ो भला।
अब तो दया करके सुरुचि का तुम न यों घोंटो गला । इसी तरह कुत्सित और गलित साहित्य लिखकर साहित्य को अर्थोपार्जन का साधन बनाने वाले साहित्यकारों को भी उन्होंने फटकारा है
जो उपन्यास यहाँ सु-शिक्षा-प्रद कहाकर बिक रहे उनमें अधिक अविचार की ही नींव पर हैं टिक रहे । उनके कुपात्रों में नरक की आग ऐसो जागती
अपनी सुरुचि भी पाठकों की दूर जिससे भागती । इसका कारण यह है कि--
मर जायन क्यों न समाज सारा, पाकटें उनकी भरें।
इसी तरह कृष्ण की ओट में वासनात्मक विकृति फैलाने वाले साहित्यकारों की भी उन्होंने कड़ी निन्दा की है--
सोचो हमारे अर्थ हैं यह बात कैसे शोक की श्री कृष्ण की हम आड़ लेकर हानि करते लोक की । भगवान को साक्षी बनाकर यह अनंगोपासना
है धन्य ऐसे कविवरों को, धन्य उनकी वासना । इसका कारण यह है कि गुप्तजी साहित्य को जातीय जीवन का चित्र मानते हैं। अतः जब जाति अपने आदर्शों से गिरती है तो साहित्य भी भ्रष्ट हो जाता है ।
"मृत हो कि जीवित जाति का साहित्य जीवन-चित्र है
वह भ्रष्ट है तो सिद्ध फिर वह जाति भी अपवित्र है।" गुप्तजी के आदर्श कवि तुलसीदास हैं। इसलिए उनकी काव्य-दृष्टि बहुत हद तक तुलसीदास के अनुरूप दीखती है । तुलसीदासजी अपनी विनम्रता दिखाते हुए लिखते हैं
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