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Vaishali Institute Research Bulletin No. 6 कहानी, निबन्ध, आलो वना आदि साहित्य तो हैं लेकिन काव्य या कविता नहीं । गुप्तजी काव्य या कविता का प्रयोग भले ही संगीत और चित्र से भिन्न, केवल पद्य में लिखित साहित्य के लिए करते हैं लेकिन जब वे कला शब्द का प्रयोग करते हैं तो उनका आशय सभी कलाओं से . होता है। उदाहरणार्थ साकेत में वे कहते हैं---
हो रहा है, जो जहाँ, सो हो रहा यदि वही हमने कहा तो क्या कहा ? किन्तु होना चाहिए कब क्या कहाँ
व्यक्त करती है कला ही यह यहाँ । यहाँ प्रसंग उमिला की चित्र-रवना का है। अतः यहाँ कला से आशय चित्र से ही होना चाहिए। लेकिन इसमें व्यक्त विकार से स्पष्ट है कि यह सभी कलाओं को ध्यान में रखकर कहा गया है। यहाँ गुप्तजी की कलादृष्टि से स्पष्ट है कि कला का उद्देश्य "क्या है" की अभिव्यक्ति नहीं "क्या होना चाहिए" की अभिव्यक्ति करना है । दूसरे शब्दों में कला जीवन का छायांकन नहीं चित्रांकन हैं। छाया चित्र ( फोटो ) में छायाकार अपनी ओर से कुछ भी परिवर्तन करने के लिए स्वतन्त्र नहीं होता है जबकि चित्रकार आवश्यकतानुसार परिवर्तन करने में स्वतन्त्र होता है। इसी को लक्षित कर कहा गया है
अपारे काव्यसंसारे कविरेको प्रजापतिः । यथास्मै रोचते विश्वं तथेदं परिवर्तते ।।
गुप्तजी अनी कला सर्जना में इसी दृष्टि के समर्थक हैं। तभी तो वे मानते हैं कि "जो अपूर्ण कला उसी की पूर्ति हैं ।” गुप्तजी अभिव्यक्ति कौशल को कला मानते हैं
___ "अभिव्यक्ति की कुशल शक्ति ही तो कला ।" उनको इस धारणा के दो अर्थ निकलते हैं। प्रथम यह कि कोई भी कला अभिव्यक्ति रक विशिष्टता के कारण ही चमत्कारक होती है । इस दृष्टि से वे भाव की अपेक्षा अभिव्यक्ति पक्ष के कौशल के समर्थक दीखते हैं। लेकिन उनकी कृतियों में अभिव्यक्ति सम्बन्धी जिस सरलता के, प्रधानतः, दर्शन होते हैं उससे उनका यह अभिप्राय खण्डित हो जाता है। अतः गुप्तजी की इस उक्ति को हम क्रोचे के अभिव्यंजनावाद की छाया के रूप में ग्रहण करना चाहेंगे जहाँ "आर्ट इज ऐन एक्सप्रेशन" की बात कही गई है ।
लेकिन कला को अभिव्यक्ति का कौशल मानने पर भी गुप्तजी कला में न तो क्रोचे की व्यक्तिनिष्ठ स्वेच्छाचारिता के समर्थक हैं और न बैडले के कलावादी स्वायत्तता के । वे "कला कला के लिए" के नहीं "कला जीवन के लिए" के समर्थक हैं
"मानते हैं जो कला के अर्थ ही स्वार्थिनी करते कला को व्यर्थ ही ।"
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