Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 6
Author(s): L C Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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गुप्तजी की काव्य-दृष्टि कवित विवेक एक नहीं मोरे । सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे। तो गुप्तजी कहते हैं
___ कवि के कठिनतर कर्म की करते नहीं हम धृष्टता । गोस्वामीजी लिखते हैं---
कीरति भनिति भूति भल सोई
सुरसरि सम सब कह हित होई । तो गुप्तजी रीति कवियों की आलोचना के प्रसंग में स्पष्टतः लोकहित का पक्ष लेते हैं
___ श्रीकृष्ण की हम आड़ लेकर हानि करते लोक की । गोस्वामीजी रामकथा की अभिव्यक्ति में ही वाणी की सार्थकता मानते हैं
भनिति विचित्र सुकवि कृत जोउ । राम नाम बिनु सोह न सोऊ ॥
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प्रभु सुजस संगति भनिति भक्ति होइहि सुजन मनभावनी । गुप्तजी भी इसका समर्थन करते हैं
आनन्ददात्री शिक्षिका है सिद्ध कविता-कामिनी ।
है जन्म से ही वह यहाँ श्रीराम को अनुगामिनी । गोस्वामीजी कविता के विषय में लिखते हैं---
सरल कवित कीरति विमल सोइ आदरही सुजान
सहज वयर बिसराई रिपु जो सुनि करहिं बखान । गुप्तजी के उपर्युक्त कथनों का भी सारांश यही है ।
____ गुप्तजी काव्यभाषा के रूप में खड़ी बोली के प्रथम उन्नायक कवि हैं। उन्हें खड़ी बोली की शक्ति को सही पहचान थी। अतः विभिन्न प्रयोगों के आवर्त में भटकती खड़ी बोली को सही दिशा देने में उनकी भूमिका स्वर्णाक्षरों में लिखी जाने योग्य है। साहित्य-भाषा के पद पर प्रतिष्ठित होने के लिए संघर्ष करनेवाली प्रत्येक भाषा आरम्भ में सरल, सहज और अभिधा प्रधान होती है। गुप्तजी की भाषा भी सरल, सहज और अभिधा प्रधान है। उन्होंने काव्यभाषा के रूप में अभिधा को ही मान्यता दी है
"बैठी नाव निहार लक्षणा-व्यञ्जना
गंगा में गृह वाक्य सहज वाचक बना।" सारांशतः गुप्तजी की काव्य-दृष्टि जीवन के सत्य को शिव और सुन्दर की ओर ले चलने वाली है। उनकी काव्य-दृष्टि कलावादियों और शुद्ध कविता के अन्वेषकों को परितुष्ट नहीं करती। यदि कविता जीवन की उपज है, जीवन के प्रति उसका कोई दायित्व है, तो उसे
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