Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 6
Author(s): L C Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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बीसवीं सदी का तुलसी-मैथिलीशरण गुप्त
175 क्या हिन्दू, क्या मुसलिम, क्या सिख और क्या बौद्ध सभो गुप्तजी की आत्मा में प्रतिभासित होते रहे और सभी 'मानहिं सबहिं राम के नाते' काव्य रूप ग्रहण करते रहे। कवि का संकल्प भारत-भारती का था, हिन्दू भारती या वैष्णव-भारती का नहीं। इस नाते में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त को आधुनिक युग का तुलसी कहना चाहूँगा क्योंकि गुप्तजी बिना किसी प्रचार के चिरगांववासी एक मसीहा थे-एक काव्य मसीहा। यह उनकी ही लेखनी का चमत्कार था कि भारतीय जनमानस रूपी जलसतह पर उनका एक-एक काव्य-रंग एक बूंद गिर कर पसर गया, व्याप गया और एक नये रंग की सृष्टि कर गया। मानस कथा में एक और जीवन्त पात्र उभर आया जिसकी सशक्त पहचान हो गयी। यह गुप्त रंग अपने समय को भी सराबोर कर गया-वह प्रसाद हों, निराला हों, पन्त हों या महादेवी । सभी इस रंग से भीग गए और आज भी यह रंग अद्यतन साहित्य में उभरता हुआ दिखलाई देता है।
गुप्तजी ने "त्वदीयं वस्तु गोविन्दं तुभ्यमेव समर्पये" की भावना से देश को देश की चीज मांजगूंज कर दे डाली। इसलिए वे तुलसीदल बन गए और उनका सारा काव्य देश के लिए नैवेद्य ।
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