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Vaishali Institute Research Bulletin No. 6
करती थी । वह समृद्ध थी, चौंसठ कलाओं में पण्डिता थी" देशी भाषाविशारद थी।'
जैन छात्राएँ विभिन्न प्रकार के विषयों का अध्ययन करती थीं । कल्पसूत्र के अनुसार अभिजात्य वर्ग की स्त्रियाँ चौंसठ कलाओं में निपुण होती थीं। चौंसठ कलाएँ निम्नलिखित थीं :--
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नृत्य, औचित्य, चित्र, वादित्र, मन्त्र तन्त्र, ज्ञान, विज्ञान, दम्भ, जलस्तम्भ, गीतमान, तालमान, मेघवृष्टि, फलावृष्टि आरामरोपण, आकारगोपपा, धर्मविचार, शकुनसार, क्रियाकल्प, संस्कृतजल्प, प्रासाद नीति, धर्मरीति, वर्णिका बुद्धि, स्वर्णसिद्धि, सुरभि तैलकरण, लीलासञ्चन, हयगज परीक्षण, पुरुष-लक्षण, स्त्री-लक्षण, हेमरत्न भेद; अष्टादश लिपि परिच्छेद, तत्काल बुद्धि, वास्तुसिद्धि, कामविक्रिया, वैद्यक क्रिया. कुम्भभ्रम, सारिश्रम, अञ्जनयोग, चूर्णयोग. हस्तलाघव, वचनपाटव, वाणिज्य विधि, मुखमण्डन, शीलखण्डन, कथाकथन, पुष्पग्रन्थन, वक्रोक्ति, काव्यशक्ति, स्फारविधिवेष, सर्वभाषा, विशेष, अभिधान ज्ञान, भूषण परिधान, भृत्योपचार, गृहाचार, व्याकरण, परनिराकरण, रन्धन, केशबन्धन, वीणानाद, वितण्डावाद, अंकविचार, लोक व्यवहार, अन्त्याक्षरिका, प्रश्न प्रहेलिका १५ ।
प्राचीन भारत में आधुनिक युग की भाँति परीक्षापद्धति का विकास नहीं हुआ था । उनका सम्पूर्ण जीवन ही परीक्षा केन्द्र था । शिक्षितों को कोई भी शास्त्रार्थ के लिए ललकार सकता था । अतः उन्हें पग-पग पर परीक्षाओं से दो-चार होना पड़ता था । नायकुमारचरिउ में पंचसुगन्धा की एक रोचक कथा है, जो अपनी दो पुत्रियों को लेकर नागकुमार पास वीणावादन की परीक्षा के लिए आती है । सफलता प्राप्त होने पर राजा से अपनी पुत्रियों के लिए नागकुमार को मांग लेती है २ ।
परीक्षोपरान्त उपाधि देने की प्रथा भी थी । इस क्षेत्र में स्त्रियाँ
पुरुषों से पीछे न थीं । ये उपाधियाँ राजा, संघ अथवा समाज के द्वारा उन्हें अध्ययन एवं साधना के बल पर प्राप्त होती थीं। कुछ प्रमुख उपाधियाँ थीं :
पण्डिता, आर्यिका आचार्या, महत्तरा, प्रवर्तिनी, गणिनी, गणावच्छेदिनी, अभिषेका, प्रतिहारी, क्षुल्लिका, साध्वी, स्थविरा आदि १३
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जहाँतक नारी शिक्षाकेन्द्र का प्रश्न है, प्रायः स्त्रियाँ पाठशाला में, स्वतन्त्र गुरु से, गणिका से अथवा भिक्षुणी संघ में शिक्षा प्राप्त करती थीं । जैन संघ में नारी की अवस्था भिक्षुओं की अपेक्षा कुछ नीची थी । तोन वर्षों का उपसम्पन्न भिक्षु तीस वर्षों की उपसम्पन्न १०. पं० शोभाचन्द्र भाटिल्ल, ज्ञाता धर्मकथांग सूत्र, पाथर्डी, १९६४, अण्डक नामक तृतीय अध्ययन पृ० १५९ ।
११. एच० आर० कपड़िया, जैन सिष्टम ऑव एडुकेशन, जर्नल आव द बम्बई यूनिवर्सिटी, भाग ८, खण्ड ४, पृ० २०१ - २०२ ।
१२. डा० हीरालाल जैन, णायकुमारचरिउ, नईदिल्ली - - १९४४ ई० ३/६-७ । १३. डा० एन० एन० शर्मा, जैन वाङ्मय में शिक्षा के तत्त्व, पृ० ५१८ ।
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