Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 6
Author(s): L C Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की काव्य-यात्रा नाना रागों और बहुरंगी शैलियों में गाई है, वह उन्हें इस युग का आधुनिक 'व्यास' सहज रूप में बना देती है।
रचना का इतना लम्बा आयाम, कथ्य को प्रस्तुत करने के इतने रूप, शैलियों के इतने बदलते रूप, छन्दों के वैविध्य और उनकी नित्य परिवर्तनशील प्रयोगमिता वर्तमान साहित्य प्रवृत्तियों के प्रति स्वागत का भाव, ( मैं आगे आने वालों का जय-जयकार ) स्वस्थ पुरातन परम्पराओं के प्रति आग्रह और भविष्यत् की आहट का संकेत ( मैं अतीत ही नहीं, भविष्यत् भी हूँ आज तुम्हारा ) उन्हें समकालीन सभी हिन्दी कवियों में विशिष्ट बना देता है । अज्ञेय का कथन सर्वथा सार्थक है कि ... "पचास वर्ष से भी अधिक समय तक हिन्दी जगत् पर छाये रह कर भी वह कैसे परम्परा से बिना नाता तोड़े नए चितन को भी आत्मसात् करते हुए युवतर पीढ़ी के लिए वे एक चुनौती बने रह सके ।" ( राष्ट्रकवि-स्मृति लेखा)
द्विवेदी युग के इतिवृत्तात्मक काव्य रूप से लेकर छायावादी, प्रगतिवादी और प्रयोगवादी काव्य प्रवृत्तियों पर पूरे अधिकार के साथ अपनी प्रतिभा के प्रस्तोता गुप्त जी युगधर्म
और कालानुसरण क्षमता की भावना से सदा उत्प्रेरित रहे । यही कारण है कि साठ वर्षों तक काव्यरचना के क्रम में कथ्य, प्रस्तुति, भाषा का परिस्कार, छन्दों का वैविध्य, काव्य रूपों की बहुरंगिता का विवेचन करने पर वह न केवल गुप्त जी की काव्यधारा के उद्भव
और विकास का ही इतिहास है, अपितु पूरी आधी सदी में द्विवेदीयुग से अधुनातन काल तक हिन्दी काव्यधारा की जो यात्रा हुई है, उसका जीवन इतिहास गुप्त जी के इन प्रबन्ध-काव्यों में सुरक्षित है।
'भारत-भारती' से 'यशोधरा' तक की काव्ययात्रा के दो एक उद्धरणों के तुलनात्मक विश्लेषण से उनके विकास का इतिहास मूर्तिमान हो उठता है ।
क्षत्रिय ! सुनो अब तो कुयश की कालिका को मेट दो। निज देश को जीवन सहित तन मन तथा धन भेंट दो। वैश्यो ! सुनो व्यापार सारा मिट चुका है देश का।
सब धन विदेशी हर रहे हैं, पार है क्या क्लेश का ? ( भारत-भारती )
'भारत-भारती' के जातीय उद्बोधक गीत पर भारतेन्दु हरिश्चद्र की इन पंक्तियों का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है.--
अंगरेज राज सुखसाज सजे सब भारी।
पै धन विदेश चलि जात यहै अति ख्वारी ॥ 'भारत-भारती' की इतिवृत्तात्मक शैली और 'यशोधरा' तथा साकेत' आदि प्रबन्ध काव्यों के अन्तराल की-दो दशकों-की अवधि में गुप्त जी की काव्यभाषा और शैली उत्तरोत्तर मॅजती और परिस्कृत ही होती नहीं गयी, उसमें चारुता, श्रुतिमधुरता और सुकुमारता सहज भाव से परिपल्लवित होने लगी। उदाहरण स्वरूप पंचवटी की कान्य-भाषा में वह प्रौढ़ता
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