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Vaishali Institute Research Bulletin No. 6
अनुवाद कर खड़ी बोली को दक्षता और इतिवृत्तात्मकता ये मुक्त कर भाषा के लालित्य और भावों की कोमलता का पथ प्रशस्त किया ।
गुप्तजी का रचना -काल लगभग छः दशकों ( साठ वर्ष ) का है । इस लम्बी अवधि में उन्होंने उन्नीस छोटे-बड़े प्रबन्ध-काव्यों की रचना की और तीन नाटकों पर भी अभ्यास किया । बाद में छायावादी काव्यप्रवृत्ति भी इन पर हावी हुई तो इनकी प्रतिभा उस वेदना, वियोग और विषाद को स्वर देने में भी योगदान करने लगी, पर गुप्तजी की सहज प्रतिमा आख्यानों, प्रबन्ध काव्यों की कथाओं और चरित्रों के पुनरुद्भावन तथा मह्त् उद्देश्यों की परिकल्पना में कहीं अधिक रमती रही है। उपर्युक्त दो प्रबन्ध-काव्यों के अतिरिक्त जयद्रथ वध, विकट भट, पलासी का युद्ध, गुरुकुल, किसान, पंचवटी, द्वापर, नहुष यात्री, शक्ति, झंकार, कावा और कर्बला, साकेत और यशोधरा मुख्य प्रबन्ध-काव्य हैं । अन्तिम दोनों महाकाव्य हैं । 'स्वस्ति और संकेत' नाम से प्रकाशित मरणोत्तर काव्यकृति है, उसके सम्पादक हैं महान साहित्य स्रष्टा अज्ञेयजी, जो उन्हें अपना साहित्य गुरु मानते हैं ।
इन छोटे प्रबन्ध काव्यों में प्रतिपाद्य विषय की विविधता इस तथ्य का हमें ऐहसास कराती है कि गुप्तजी की सृजन-चेतना कितनी व्यापक और विविधताशाली थी । क्या प्रागैतिहासिक भारतीय आख्यान, पुराण, वीर काव्य ( रामायण- महाभारत ) हिन्दूकाल और आधुनिक काल तक उनकी कलादृष्टि का प्रसार हुआ है । इनमें प्रस्तुत कथा -प्रबन्धों, चरित्रों के माध्यम से गुप्तजी ने भारतीय संस्कृति की समग्रता का, उसकी जीवन्त शक्ति का, कालानुसरणक्षमता की महागाथा हमारे समक्ष कलात्मक काव्यात्मक संस्पर्श के साथ प्रस्तुत की । महनीय आर्यचरित्रों के उदात्त जीवन संस्कारों को तूलिका की स्पर्धा समकालीन हिन्दी कवियों में लक्ष्मण, कृष्ण, बुद्ध, सीता, उर्मिला, कैकेयी और
गढ़ने और सँवारने में गुप्तजी की कलाशायद ही कोई कर सके । उनके राम, यशोदा आदि पात्र अपने उदात्त, त्याग और तप से चाहे कितने ही महान् क्यों न हों पर वे नितान्त मानवीय सुख - दुःख की संवेदना के संस्पर्श से तरल हैं । कवि के अन्तर में एक साथ ही वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, तुलसीदास, गुरु नानक, कबीर और गाँधी की चिन्तनधारा और कल्पना का अद्भुत सामञ्जस्य हुआ है, पर उस सामञ्जस्य में कहीं भी कलात्मक सौन्दर्य का अभिनिवेश बाधित नहीं हुआ है । सब में भारतीयता की उदात्त भावना की प्रतिष्ठा हुई है, यही कारण है कि गुप्तजी साहित्य सृजन की इस प्रक्रिया के माध्यम से एक रससिद्ध कलाकार के रूप में विख्यात हुए, वहीं वे भारतीय संस्कृति के प्रस्तोता और व्याख्याता के रूप में भी स्मरण किये जाते हैं । इस रूप में भी उनका राष्ट्रकवि' होना चरितार्थ होता है ।
विषयवस्तु की विविधता इतना दीर्घकाल व्यापी है, पुरातन से अद्यतन काल तक को अपने कथा काव्यों में गुप्त जी ने फूलों की माला के रचनाकार कुशल मालाकार की तरह रंग-विरंगे, रोचक, प्रभाशाली आख्यानों, चरित्रों और विविध रचनात्मक उद्देश्यों से पिरोया है, इस आर्य जाति के उत्थान - पतन और पुनरुत्थान की महागाथा नाना छन्दों,
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