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जैन शिक्षादर्शन में शिक्षार्थी की योग्यता एवं दायित्व 143 ब्राह्मण विचार-धारा
श्रमण विचार-धारा (८) स्वर्ग की प्राप्ति के लिए ब्राह्मण धर्म (८) श्रमण धर्म यज्ञ को आवश्यक मानता है यज्ञादि आधार को आवश्यक मानता है। और मोक्षप्राप्ति के लिए आचार को
आवश्यक । (९) ब्राह्मण धर्म में संयम एवं तपश्चरण को (९) श्रमण धर्म में संयम एवं तपश्चरण द्वारा आवश्यक माना गया है।
आचार पालन करने का विधान है । (१०) ब्राह्मणवादी व्यवस्था में संन्यासियों को (१०) श्रमण व्यवस्थान्तर्गत श्रमणों का एक
ठहरने का स्थान एवं समय सम्बन्धी जगह पर ठहरना निन्दनीय है । हाँ वर्षा कोई प्रतिबन्ध नहीं है।
ऋतु में चार माह तक एक स्थान पर
ठहरना आवश्यक माना गया है । (११) ब्राह्मणवादी व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण (११) श्रमण धर्म की परिणति भक्ति में हुई है।
ही वेदाध्ययन के अधिकारी थे, शूद्र भक्ति मार्ग शूद्रों को भी पूजन का अधिनहीं।
कार देता है। (१२) ब्राह्मणवादी व्यवस्था में महिलाओं का (१२) श्रमण व्यवस्था में महिलाओं को पुरुषों अनादर पाया जाता है।
के समान अधिकार तथा प्रतिष्ठा प्राप्त है। ब्राह्मण और श्रमण धर्म में प्रधानता किसकी ? विश्वदर्शन एवं विश्वधर्म के ऐतिहासिक अध्ययन से ज्ञात होता है कि संसार के सभी धर्म समान लक्ष्य रखते हैं, लेकिन उनकी अभिव्यक्ति के द्वार भिन्न-भिन्न होते हैं। सर्वज्ञातव्य है कि उन सभी धर्मों का लक्ष्य समाज को सन्मार्ग दिखाना एवं अन्त में मोक्ष प्राप्त कराना है, किन्तु इन धर्मों के अनुयायिकों को जहाँ परस्पर सहानुभूति-शान्ति से रहना चाहिए, वहाँ ये भ्रान्ति, घृणा, उपद्रव एवं गृह-युद्ध की आधार-भूमि बन जाते हैं। लेकिन ऐसा तभी होता है, जब तथाकथित धार्मिक व्यक्ति धर्म में अन्तनिहित व्यापक तत्त्वदर्शन को समझने में असमर्थ रह जाते हैं और बाह्य लौकिक आधारों को ही धर्म की संज्ञा देकर उसकी मौलिकता से दूर चले जाते हैं। फलतः वैसे लोग धर्म के तात्त्विक स्वरूप पर उसके प्रचलित अर्थ का आरोप कर देते हैं, कोई सामञ्जस्य-सामरस्य स्थापित नहीं कर पाते । ऐसी स्थिति में हमें ब्राह्मण एवं श्रमण धर्म के तात्विक स्वरूप का दिग्दर्शन करना है और उनमें व्याप्त अच्छाई एवं बुराई का निष्पक्ष एवं तुलनात्मक दृष्टि से अवलोकन कर उनकी अन्तर्निहित समस्या का समाधान निकालना है ।
धर्मेतिहास में इन दोनों धर्मों के परस्पर सम्बन्ध को ढूंढ़ने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि ब्राह्मण धर्म का मूल उत्स वेद है। श्रमण धर्म वेद की रचना के पूर्व से ही प्रचलित था, लेकिन वेद-पूर्व का इतिहास अनुपलब्ध है । वेद-पूर्व से ही अहिंसा को धर्म का लक्षण माना गया है
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