Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 6
Author(s): L C Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 188
________________ जैन शिक्षादर्शन में शिक्षार्थी की योग्यता एवं दायित्व प्रतिक्षा करनी पड़ती थी । शरीर त्यागने के लिए तत्कालीन तापस इसी व्रत का अनुपालन करते थे । 'समराइच्चकहा' के प्रथम भव में पात्र अग्निशर्मा के चरित्रावलोकन से हमें इसका ज्वलन्त उदाहरण प्राप्त होता है। हर धर्म में अपनी-अपनी विशेषताएँ होती हैं, जो जनमानस को आकृष्ट कर अनुगामी बनने के लिए बाध्य करती हैं । वैदिक धर्म की भी कुछ अपनी विशेषताएँ हैं । 'ब्राह्मण विचार धारा' नाम से ही ऐसा प्रतीत होता है कि यह विचारधारा तरकालीन समाज के ब्राह्मणों द्वारा प्रतिपादित, विश्लेषित एवं व्याख्यायित होगी । साथ ही, यह विचारधारा अवश्य ही समाज के ऊँचे वर्गों के लिए कल्याण- प्रद तथा निम्न वर्गों के लिए अस्पृश्य एवं अपाठ्य थी। इसकी सम्पूर्ण मान्यता वेदों पर आधारित है । यज्ञ पर ब्राह्मणपरम्परा काफी बल देती थी, जिसमें पशु बलि का प्रचलन था । यही कारण है कि आज भी यज्ञ में पशुओं की बली दी जाती है । ब्राह्मण विचारधारा जीवन को चार आश्रमों में विभक्त करती है -- ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम । बह्मचर्याश्रम में अध्येता अपने तपबल से बुद्धिबल एवं शारीरिक बल की वृद्धि करता था, ताकि गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर अपने त्रिऋण (देव - ऋण, पितृ ऋण एवं गुरु- ऋण) से उऋण हो सके । गृहस्थाश्रम में गृहस्थ सभी सद्गुणों से संयुक्त होकर गृह में ही निवास करते हुए आजीविका का सारा प्रबन्ध कार्य सम्भालकर सृष्टिसृजन करते हुए | जीवन बिताते थे । वानप्रस्थाश्रम में वानप्रस्थी वन-वन घूमकर अपने प्रवचनों द्वारा मानव-कल्याण करता था । संन्यासाश्रम में संन्यासी मोक्ष प्राप्ति हेतु संसार की सारी मोहमाया को त्यागकर तपाचारण करता था । ब्राह्मण विचारधारा पुनर्जन्म पर काफी विश्वास करती है । जन्मान्तर में कर्मफल को छोड़ा नहीं जा सकता । पूर्व जन्म में की गई अच्छाई एवं बुराई से उत्पन्न फल दूसरे जन्म में वृक्ष की उत्पत्ति की भाँति बीज का कार्य करता है । 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की परिकल्पना आर्य-साहित्य की एक महानतम उपलब्धि है, जो सम्पूर्ण विश्व को एक अखण्डित कौटुम्बिक परिवार मानकर इसके अविकल ऐश्वर्य और सुखद सौभाग्य की महत्वाकांक्षा रखती है । हिन्दूधर्म आज भी इस पवित्र परिकल्पना को साकार करने के लिए सतत सचेष्ट है । ब्राह्मणधर्म आत्मदर्शन और परमात्मदर्शन को अपना प्राणतत्त्व मानता है | अद्वैतवाद की परिकल्पना इसी धर्म की देन है । 141 निष्कर्षतः ब्राह्मणधर्म भोगमूलक एवं प्रवृत्तिमूलक धर्म को स्वीकारता है । आधुनिक हिन्दूधर्म में ब्राह्मणधर्म नींव रूप में विद्यमान है । लेकिन व्यापक दृष्टि से देखने पर इसका अस्तित्व हिन्दू धर्म में आज नहीं के बराबर है' । १. भारत की प्राग्वैदिक संस्कृति ने आर्यों की वैदिक संस्कृति के चारों ओर अपना जो विशाल जाल फैला दिया, उसे देखते हुए यह रूपक काफी समीचीन लगता है कि "भारतीय संस्कृति के बीच वैदिक संस्कृति समुद्र में टापू के समान है ।" - संस्कृति के चार अध्याय, पृष्ठ ६० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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