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जैन शिक्षादर्शन में शिक्षार्थी की योग्यता एवं दायित्व
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उन्होंने नाना रत्नों से जटित स्वर्ण के आभूषण बनवाये तथा आचार्य को बहुमूल्य वस्त्राभूषण एवं नारियल आदि भेंट में दिये । लेखशाला में विद्यार्थियों को मषिपात्र, लेखनी दी। साथ ही द्राक्षा, खडशर्करा, चिरौंजी और खजूर आदि वितरित किया। तदुपरान्त महावीर ने तीर्थ जल से स्नान कर, सर्वालंकार से विभूषित हो, महाछत्र आदि धारण किये हुए, चामरों से वीज्यमान चतुरंग सेना से परिवृत गाजे-बाजे के साथ लेखशाला में प्रवेश किया।
इसी प्रकार महाबल कुमार' तथा दृढ़प्रतिज्ञ' आदि के शिक्षा ग्रहण करने के सम्बन्ध में कहा गया है। इस उत्सव को जैनागमों में उपनयन कहा गया है । लेकिन अभयदेव ने उपनयन का अर्थ कला ग्रहण किया है। कला का अर्थ है-विद्या। विद्या ग्रहण के समय जो उत्सव मनाया जाता है, उसे उपनयन कहा गया है। किन्तु आदिपुराण में विद्यारम्भ करने के समय में चार प्रकार के संस्कार बताये गये हैं। जो निम्न प्रकार से हैं
(१) लिपि संस्कार :वैदिक ग्रन्थों में उपनयन संस्कार के पश्चात् ही शिक्षा का प्रारम्भ बताया गया है अर्थात् लिपिज्ञान, अंकज्ञान या शास्त्रों आदि का उपनयन के बाद ही आरम्भ किया जाता है, परन्तु आदिपुराण में उपनीति-क्रिया के पूर्व लिपि संस्कार करने का वर्णन आया है। जब बालक पाँच वर्ष का हो जाए तब उसका विधिवत् अक्षरारम्भ कराना चाहिए । उपनयन तो माध्यमिक शिक्षा के पूर्व होता है ।
लिपि संस्कार की विधि का वर्णन करते हुए कहा गया है कि बालक के पिता को यथाशक्ति पूजन सामग्री लेकर श्रुत देवता का पूजन करना चाहिए और अध्ययन कराने में कुशल व्रती गृहस्थ को ही उस बालक के अध्यापक पद पर नियुक्त करना चाहिए । इस विधि में बालक अ, आ आदि वर्णमाला तथा इकाई, दहाई आदि अंकों का ज्ञान प्राप्त करता है। तदुपरान्त बालक को स्वर, व्यंजन, संयुक्ताक्षर, योगबाह आदि का अभ्यास करना होता है। अतः आदिपुराण के अनुसार लिपि संस्कार के बाद उपनयन संस्कार का विधान है ।
(२) उपनीति-क्रिया : गर्भ से आठवें वर्ष में बालक की उपनीति क्रिया होती है। वैदिक ग्रन्थों में जिसके लिए संस्कार शब्द का प्रयोग किया गया है उसी के लिए आदिपुराण क्रिया शब्द से इंगित किया गया है। इस क्रिया में केशों का मुण्डन, व्रतबन्धन तथा तीन
१. कल्पसूत्र टीका ५, १२० । २. भगवती सूत्र भाग-४, ११।११।४०५ । ३. राजप्रश्नीय सूत्र-४०९ । ४. भगवती (अभयदेववृत्ति)-११।११।४२९, पृ० ९९९ । ५-६. ततोऽस्य पञ्चमे वर्षे प्रथमाक्षरदर्शने । ज्ञेयः क्रियाविधिर्नामा लिपि संख्यान् संग्रह ।
--आदिपुराण, ३८.१०२ ॥ ७. आदिपुराण-१६।१०५-१०७ ।
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