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आचार्य हरिभद्रकालीन धार्मिक परिस्थिति
शैलेन्द्र कुमार राय धम्मो मंगलमुक्किट्ठ अहिंसा संजमो तवो।
देवा वि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो ॥ 'धृ' धातु के अन्त में मन् या 'म' प्रत्यय के संयोग से 'धर्म' शब्द बनता है। धर्म उत्कृष्ट मंगल हैं । अहिंसा, संयम और तप उसके लक्षण हैं । जिसका मन सदा धर्म में रत रहता है, उसे देव भी प्रणाम करते हैं। धर्म ऐकान्तिक और आत्यन्तिक मंगल है। संसार-बन्धन जैसे महान् दुःख का आत्यन्तिक क्षयकारक एवं मोक्ष सदृश महान् सुखकारक धर्म उत्कृष्ट मंगल का कारण है। प्राणातिपात-विरति अहिंसा है। राग-द्वेष से रहित होकर एकीभाव-स्वभाव में स्थित होना संयम है। आठ प्रकार की कर्म-ग्रन्थियों को नष्ट करनेवाले तत्त्व को तप कहते हैं । तप बारह प्रकार का कहा गया है-(१) अनशन, (२) ऊनोदरता, (३) भिक्षाचर्या, (४) रसपरित्याग (५) काय-क्लेश, (६) प्रतिसंलीनता, (७) प्रायश्चित, (८) विनय, (९) वैयावृत्य, (१०) स्वाध्याय, (११) ध्यान, (१२) व्युत्सर्ग। वस्तुतः धर्म वह है, जिसके आचरण करने से स्वर्ग आदि अभ्युदय तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है। जिसमें क्षमा, मादव, आर्जव, मुक्ति, तप, संयम, सत्य, शौच, अकिंचन, ब्रह्मचर्य, अनुव्रत, दिग्वत, देशवत, अनर्थदण्डव्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, भोग-परिभोग, अतिथि संविभाग, अनुकम्पा तथा अकाम निर्जरा के साधनों का बहुलता से वर्णन हो, वह धर्म कथा है। इसमें जनता की आध्यात्मिक आवश्यकताओं का निरूपण, भावजगत् को ऊँचा उठाने का प्रयास एवं जीवन और जगत् के व्यापक सम्बन्धों की समीक्षा मामिक रूप में विद्यमान रहती है। बास्तविकता यह है कि समाज-निर्माण में आध्यात्मिक शोषण, आर्थिक शोषण की अपेक्षाकृत अधिक बाधक है। शोषण का कुप्रभाव अर्थव्यवस्था पर पड़ता है, जिससे अशिक्षा, आध्यात्मिक शून्यता, अस्वास्थ्य आदि दोष उत्पन्न होते हैं, परन्तु आध्यात्मिक शोषण होने से जनता का भावजगत् ऊपर हो जाता है, जिससे उच्च सुखमय जोवन की अभिलाषाओं पर प्रश्नचिह्न लग जाते हैं। आत्मविश्वास और नैतिक बल नष्ट हो जाता है एवं जीवन मरुस्थल बन जाता है ।
भारतीय समाज के रंगमंच पर धर्म के विभिन्न मतावलम्बियों द्वारा अपने धार्मिक मत से भारतीय समाज को प्रभावित करने एवं अपनी भावना को स्थायी रूप देने के उद्देश्य से अपने-अपने धर्म को प्रचारित एवं प्रसारित करने का सराहनीय प्रयास किया गया । परिणामतः भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति पर उसका प्रभाव आज भो दृष्टिगोचर होता है। धार्मिक परिवर्तन एवं परिवर्धन के परिवेश में हरिभद्रकालीन समाज में हम मुख्यतया श्रवण धर्म एवं वैदिक धर्म का स्पष्ट चित्रावलोकन करते हैं । तत्कालीन समाज में इन धर्मों का क्रियाकलाप द्रष्टव्य है
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