Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 6
Author(s): L C Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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जैन शिक्षादर्शन में शिक्षार्थी की योग्यता एवं दायित्व
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तो वही विचार श्रमणत्व का कारण बन जाता है। 'समराइच्चकहा' में जैन सम्प्रदाय की मान्यता के अनुसार कर्मतरु को काटकर सभी प्रकार के बन्धनों से छुटकारा पाने के लिए प्रव्रज्यारूपी महाकुठार को परलोक में सहायक बताया गया है। उस समय ऐसा विश्वास किया जाता था कि प्रव्रज्या धारण करने वाला मानव आगम विधि से देह-त्याग कर सुरलोक की प्राप्ति करता है। शरीर क्षणभंगुर है, नाशवान् है। इसलिए इस क्षणिक समय में सद्गुण की प्राप्ति एवं नाना दुःखों से छुटकारा पाने के लिए लोग श्रमण धर्म को अपनाते थे । प्रव्रज्या ग्रहण करने वाले को सर्वप्रथम गुरु द्वारा साधु का चिह्न रजोहरण दिया जाता था। पुनः मुंडन-संस्कार कर कायोत्सर्ग को नमस्कार मंत्र द्वारा पूर्ण किया जाता था। तत्पश्चात् गुरु-द्वारा दिया गया सामायिक मंत्र भक्ति के साथ ग्रहण किया जाता था। पुनः गुरु द्वारा शिक्षा दी जाती थी और शिक्षा पाकर लोग आचार्य तथा अन्य साधुओं की वंदना करते थे। पुनः वे आचार्य "मोक्ष प्ररूपण करने वाले आगमों का परिगामी बनोऐसा कहकर शिष्य के मंगल की कामना करते थे। इतना करने के पश्चात् गुरुजनों की वन्दना, पुनः आचार्यों के चरणों को वन्दना करने का विधान था। भिक्षुक रजोहरण और प्रडिग्गह ग्रहण करता था। इस प्रकार से प्रव्रज्या करने वालों में भगवती सूत्रानुसार राजकुमार जमाली. सिन्ध सौवीर के राजा, ऋषभदेव तथा सुदर्शन आदि का उल्लेख है । 'उपासकदशांग' में श्रावकों को पांच अनुव्रत और सात शिक्षावतों का नाम गिनाया गया है। जैन परम्परा के अनुसार ये अनुव्रत पाँच ही प्रकार के माने गये है, यथा-स्थूल प्राणातिपात विरमण, स्थूल मृषावाद विरमण, स्थूल अदत्तादान विरमण, स्वदार संतोष तथा इच्छा परिमाण । श्रावकों के आचार का प्रतिपादन 'सूत्रकृतांग', 'उपासक दशांग आदि आगम ग्रन्थों में बारह व्रतों के आधार पर किया गया है । इन बारह व्रतों में क्रमशः पाँच अनुव्रत और शेष सात शिक्षाव्रत है । 'समराइच्चकहा' में श्रावक के लिए अतिचारों से दूर रहते हुए निम्नांकित उत्तर गुणों से सुसज्जित होना अनिवार्य बतलाया गया है-उर्ध्वादिग्गुणव्रत, अधादिग्गुणवत, तिर्यक् आदि गुणवत, भोगोपभोग परिणाम लक्षण गुणव्रत, उपभोग और परिभोग का कारण स्वर और कर्म का
१. समराइच्चकहा-१, पृ० ४७; २, पृ० १०२ ।। २. समराइच्चकहा-१, पृ० ५६; २, पृ० १८६; ४, पृ० २४६, ३४३, ३५०; ६, ५७४,
५९०। ३. समराइच्चकहा-३, पृ० २८१; ७, पृ० ७१२, ७१३ । ४. समराइच्चकहा-३, पृ० २२२-२३-२४ । ५. उपासकदशांग-अध्याय १, सूत्र १२, सूक्त ५८ (पंचारगुवतियं सत्तसिक्खावईयं दुवा
लस्सविहं गिहिधम्म......) । ६. सूत्रकृतांग, श्रुत २, अ० २३' सूत्र ३ (-सीलव्वय गुणविरमण पच्चवरवाणपोसहोव वासेहि
अप्पाणं भावे भागों एव चरण विहरह) । ७. उपासकदशांग, अध्याय १, सूक्त-१२, सूक्त-५८ ।
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