Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 6
Author(s): L C Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
View full book text
________________
जैन शिक्षादर्शन में शिक्षार्थी की योग्यता एवं दायित्व
125
१-जिस प्रकार प्रचण्ड अग्निशिखा क्षणमात्र में बड़े से बड़े इन्धनादि पदार्थों के समूह को भस्मसात् कर देती है, ठीक उसी प्रकार गुरुजनों की अवज्ञा, शिष्य के ज्ञानादि सद्गुणों को भस्मसात् कर देती है।
२-स्वाभिमानी एवं मदान्धशिष्य की मूर्खता को बताते हुए कहा गया है जो अभिमानी शिष्य आचार्य की अवज्ञा या आशातना करता है, वह प्रचण्ड धधकती हुई अग्नि को पैरों से मल कर बुझाता है, बड़े भारी जहरीले सर्प को क्रुध करता है तथा जीने की इच्छा से सयः प्राणहारी 'हालाहल' नामक विष को खाता है।
३-गुरु की आशातना करने वाले दुर्बुद्धि शिष्य को मुक्ति, नहीं मिल सकती।
४-जिस प्रकार सड़े कान वाली कुतिया घृणा के साथ सभी स्थानों से निकाल दी जाती है, उसी प्रकार गुरु के प्रतिकूल आचरण करनेवाला दुःशील वाचाल शिष्य भी सर्वत्र अपमानित करके निकाल दिया जाता है'।
५-जिस प्रकार गज, बैल तथा अड़ियल घोड़े आदि अविनीतता अर्थात् न चलने पर प्रायः अंकुश और चाबुक की मार खाते हुए घोर दुःखों को सहते हैं, उसी प्रकार अविनीत शिष्य गुरु से प्रताड़ित होते हुए दुःख का अनुभव करते है।
अतः जो शिष्य विनय धर्म को छोड़कर अविनय के मार्ग पर चलते हैं, वे अपने ही पैर में अपने हाथों से कुल्हाड़ी मारते हैं।
विनोत और अविनीत शिक्षार्थी का गुरु पर प्रभाव विनीत जहाँ शालीनता और सद्गुणों की राह पर चलता है वहीं अविनीत असद्गुणों को अंगीकार करता है। इतना तो निश्चित ही है कि जो शिष्य गुरु की दृष्टि में अनैतिक एवं दुराचारी है, उसे गुरु यदि कुछ सिखाना भी चाहते हैं तो वे नहीं सिखा पाते हैं। एक ओर बिना विचारे अनाप-शनाप बोलने बाले दुष्ट शिष्य जहाँ अनी कुप्रवृत्तियों से विनम्र और मृदुभषी गुरु को भी क्रुध बना देते हैं वही दूसरी ओर गुरु के मनोकुल चलने वाले पटुता से कार्यसम्पन करने वाले विनीत शिष्य शीघ्र ही रुष्ट होने वाले गुरु को भी प्रसन्न कर लेते है । १. दशवैकालिक-९.१.३ २. जो पावगं जलिअमवक्कमिज्जा, आसीविसं वावि दु कोवइज्जा । ____ जो वा विसं खयइ जीविअट्ठी, एसोयमासायणाय गुरुणं ।। वही-९।१।६ ३. न आवि मुक्खो गुरुहीलणाए । वही-९।११७ । ४. जहा सुणी पूई-कण्णी निक्कसिज्जइ सव्वसो ।
एवं दुस्सील-पडिणीए, मुहरो निक्कासिज्जई ॥ उत्तराध्ययन-१-४ ५. खलुके ज उ जोएइ विहम्माणो किणिस्सई ।
असमहिं च वेएइ तोत्तओ य से भज्जई । वही-२७।३ ६. अणासवा थूलवया कुसोला, मिडंपि चण्डं पकरेति सीसा ।
चित्राणुया लहु दक्खोववेया पसायए ते हु दुरसयं पि ॥ वही १।१३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org