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जैन शिक्षादर्शन में शिक्षार्थी की योग्यता एवं दायित्व 121 न्द्रिय होना, (१३) असं विभागी अर्थात् साथियों का सहयोग न करना और (१४) अप्रीतिकर यानी दूसरों का अप्रिय करना' ।
अविनीत शिक्षार्थी के कुछ कार्यों का वर्णन आया है जिससे उनका स्वरूप दृष्टिगोचर होता है
गुरु द्वारा अनुशासित किये जाने पर बीच में बोलना, आचार्य के वचनों में दोष निकालना तथा उनके वचनों के प्रतिकूल आचरण करना। किसी कार्य विशेष से भेजने पर नाना प्रकार के बहाने बनाना, किसी गृहस्वामिनी के सम्बन्ध में कहना कि वह मुझे नहीं जानती इसलिए मुझे शिक्षा नहीं देगी या वह घर से बाहर गयी होगो । अतः किसी दूसरे साधू को भेज दीजिए या जाना पड़ा तो इधर-उधर से घूमकर लौट आना तथा पूछने पर राजाज्ञा की तरह भृकुटि तानकर जवाब देना । इसी तरह कुछ शिष्य ऐश्वर्य, रस तथा मुख का गौरव कर विषय भोगों में निमग्न रहते हैं । भिक्षा मांगना अपमान है ऐसा समझ कर भिक्षा के लिए नहीं जाते हैं और भिक्षा माँगने में अलस्य करते हैं । जिस प्रकार दुष्ट बैल गाड़ी में जोते जाने पर कभी समिला अर्थात् जुए की कील को तोड़ देता है, कभी गाड़ी को उन्मार्ग पर ले जाता है कभी सड़क के पार्श्व में बैठ जाता है तो कभी गिर पड़ता है, कभी कूदता है तो कभी उछलता है और कभी जुए को तोड़ता हुआ तरुण गाय के पीछे भाग जाता है। इतना ही नहीं उसी में कोई धूत बैल होता है जो मृतक-सा भूमि पर पड़ रहता है। ठीक इसी प्रकार धैर्य में कमजोर शिष्य धर्मयान में जोतते हुए गुरु द्वारा संयमित किये जाने पर विभिन्न प्रकार की कुचेष्टाएँ करते हुए गुरु को पीड़ित करते हैं । पुनश्च कहा गया है कि जिस प्रकार सूअर चावलों की भूसि का छोड़कर विष्ठा खाता है, उसी प्रकार अज्ञानी शिष्य शील, सदाचार छोड़कर दुःशील दुराचार में रमण करता है। अपने गुरु के प्रति आशातनाओं का आचरण करता है। आशातनाएँ तैतीस प्रकार की बतलायी गयी है जो निम्नवत् हैं
१-मार्ग में गुरु के आगे चलना । २-मार्ग में गुरु के बराबर चलना । ३-गुरु के पीछे अकड़कर चलना ।
१. उतराध्ययन--११.६-९ २. वही-२७.११-१३ ३. इड्ढ़ीगाविए एगे, एगेऽप्य रसगारवे ।
सायागारविए एगे, एथे सुचिरकोहणे ॥
भिक्खाललिए एगे, एगे ओभाणभीरुए थद्धे । उत्तराध्ययन-२७-९-१० । ४. वही २७-४-८ ५. कण-कुण्डग चइत्ताणं विभुंजइ सूयरे । __एवं सीलं चइत्ताण, दुस्सीले रमई मिए । वही-१५ ६. समवायांग-~समवाय ३३, श्रमण-सूत्र-४७६
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