Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 6
Author(s): L C Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No. 6
वत् दृष्टि से अहिंसा का जन्म होता है। विवेक से अहिंसा प्रतिफलित होती है और अहिंसा में विवेक जीवित रहता है । इस प्रकार विवेक और अहिसा दोनों अन्योन्याश्रित हैं और हम यह बात जानते हैं कि विवेक के अभाव में मनुष्य मनुष्य नहीं रहता है। मनुष्य को मनुष्य होने के लिए विवेकवान् होना जरूरी है। किन्तु हमारा विवेक जीवित और जाग्रत रहे उसके लिए अहिंसक होना आवश्यक है ।
- मनुष्य और पशु में अन्तर स्थापित करने वाला दूसरा तत्त्व संयम है । संयम का अर्थ अपनी वृत्तियों पर नियंत्रण रखना है । दूसरे शब्दों में अपने हितों के समर्पण का भाव है । अहिंसा तब ही जीवित और जाग्रत रह सकती है जब हममें अपने हितों के समर्पण की वृत्ति हो । इन हितों के समर्पण की वृत्ति को जैन परम्परा में हम त्याग के नाम से जानते हैं । यह त्याग या अहिंसा ही संयम है। इसके विपरीत भोगाकांक्षा या स्वार्थवृत्ति हिंसा है । भोग या स्वार्थ शोषण को जन्म देता है । त्याग और संयम समर्पण और सेवा की भावना को जीवित रखते हैं । यह समर्पण और सेवा की भावना अहिंसक जीवन दृष्टि में हो सम्भव हो सकती है।
मनुष्य और पशु में एक अन्य महत्त्वपूर्ण अन्तर करुणा और क्रूरता को लेकर भी है । मनुष्यता का विकास करता में नहीं करुणा में है। जिसमें यह करुणा की धारा जितनी अधिक वेगवती होती है वह उतना ही मनुष्यत्व के निकट होता है । हिंसक कभी भी कारुणिक नहीं हो सकता है। हिंसा और क्रूरता दोनों एक सिक्के के ही दो पहलू हैं। क्रूरता के बिना हिंसा सम्भव नहीं है। जिसमें करुणा की भावना नहीं है उसका सारा तप, त्याग, दान और धर्म सब व्यर्थं माना है। हिंसा के लिए क्रूरता आवश्यक होती है । क्रूरता से चित्त की कोमलता नष्ट होती है। परिणामस्वरूप करुणा का स्रोत सूख जाता है। स्वार्थलिप्सा, शोषण आदि बढ़ते हैं जिससे धृणा, विद्वेष के तत्त्व विकसित होता है इससे सामाजिक शान्ति और सहयोग की भावना समाप्त हो जाती है।
__ हम यह मानते है कि अहिंसा का मूल मैत्री और करुणा की भावना में है। मैत्री और करुणा का भाव ही हिंसक भाव का नाश करके अहिंसा के लिए एक आधार भूमि तैयार करता हैं । इसीलिए जैन परम्परा में साधक के लिए यह कहा गया है कि वह प्रतिदिन यह भावना भावे कि मेरी सभी प्राणियों के प्रति मित्रता है और किसी के प्रति वैर नहीं है। क्योंकि मैत्री का भाव विद्वेष और घृणा का शमन करना है और करुणा का भाव हमारे मन में दूसरे के प्रति कल्याण की भावना को जाग्रत करता है और इसी से अहिंसा का आचरण सम्भव होता है।
१. अहिंसैषा मता मुख्या"एतत्संरक्षणार्थं च न्यायं सत्यादिपालनम् । हरिभद्रीय अष्टक १६१५ । २. एवकं चिय एवकं निद्दिळं जिणवरे हि सव्वेहि णाणइ वायविरमण-सत्वसत्तस्स खखट्ठा । - पञ्चसमह द्वार। ३. अहिंसा शस्यसंरक्षणे वृत्तिकल्पत्वात् सत्यादि व्रतानाम्-हरिभद्रीय अष्टक १६।५ । ४. धर्म समासतोऽहिंसा वर्णयन्ति तथागता । चतुःशतकम् २९८ ।
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