Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 6
Author(s): L C Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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अहिंसा का महत्त्व
जितेन्द्र वी० शाह* यदि कोई गणितज्ञ संसार के धर्मों का महत्तम समापवर्तक निकाले तो उसे अहिंसा ही सभी धर्मों के सर्वमान्य सिद्धान्त के रूप में प्राप्त होगी। सभी धर्मों ने अहिंसा को सर्वोत्तम महत्त्व दिया है। जैन धर्म में पाँच व्रतों में अहिंसा को प्रथम स्थान में रखा गया है और शेष चार व्रत अहिंसा की सुरक्षा के लिए बतलाए गए हैं। कहा गया है कि अहिंसा धान है, सत्य आदि उसकी सुरक्षा करने वाले बाड़े है । बौद्ध धर्म में भी अहिंसा को ही धर्म का सार कहा है। इसी प्रकार महाभारत में अहिंसा को परम-श्रेष्ठ धर्म कहा है। उसमें कहा गया है कि अहिंसा धर्म और अर्थ दोनों ही पुरुषार्थ से कोष्ठ हैं। सभी धर्म इसके अन्दर समाविष्ट हो जाते हैं। जिस प्रकार हाथी के पदचिह्नों में अन्य प्राणियों का पदचिह्न समा जाते है । अतः अहिंसा ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है । वही धर्म का प्राण या हृदय है । आचारांग में उसे शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म कहा गया है। उसके आचरण करने पर ही सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह आदि का आचरण हो सकता है । मानव जीवन के जितने भी सद्गुण हैं उन सबके मूल में अहिंसा की भावना ही है । मानवता को प्राप्त करने के लिए अहिंसा का आचरण आवश्यक है । अहिसा के बिना मानव मानव नहीं कहला सकता।
__ वस्तुतः सब जीव के कल्याण की भावना ही अहिंसा है। सब प्राणियों को जीवन प्रिय है । सब सुख के अभिलाषी हैं, दुःख सभी को प्रतिकूल है, वध सभी को अप्रिय है, सभी जीने की इच्छा रखते हैं। इससे किसी को मारना अथवा कष्ट नहीं पहुँचाना चाहिए । अहिंसा भावना अन्य प्राणियों के प्रति आत्मभाव से ही फलित होती है। जब तक हम संसार के सब प्राणियों को अपनी आत्मा के समान नहीं समझते हैं तब तक अहिंसा अशक्य है । आचारांग में कहा गया है कि तूं जिसे मारना चाहता है वह तूं ही है । जीवों की हिसा न करना-न मारना ही अहिंसा नहीं है अपितु मन, वाणी एवं कर्म इनमें से किसी के भी द्वारा किसी भी जीव को पीड़ा नहीं पहुँचाना ही अहिंसा है । अहिंसा केवल निषेधात्मक ही नहीं दया, करुणा और सेवा यह अहिंसा के विधायक पक्ष हैं । जो जीव कष्ट या पीड़ा में है उनको अपने दुःख से मुक्त करना अहिंसक का प्रथम कर्तव्य है। जैनों की अहिंसा केवल नकारात्मक ही नहीं है किन्तु विधेयात्मक भी है। जैन धर्म में व्यावृत्त या सेवा को एक तप माना गया है मगर किसी को नहीं मारना यही अहिंसा नहीं है, किसी की सेवा करना या किसी की पीड़ा दूर करना यह भी अहिंसा है । अहिंसा के इसी विधायक पक्ष से ही सामाजिक जीवन और सामाजिक चेतना प्रतिफलित होते हैं।
* पी० बी० जैन शोध संस्थान, वाराणसी ।
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