Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 6
Author(s): L C Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No. 6 प्रमाण से यह जाना जाता है कि ज्ञान में शब्दानुविद्धता है, प्रत्यक्ष प्रमाण से या अनुमान प्रमाण से' ?
ज्ञान में शब्दानुविद्धता प्रत्यक्ष प्रमाण से प्रतीत नहीं होती-'ज्ञान शब्दानुविद्ध है' इसकी प्रतीति प्रत्यक्ष प्रमाण से मानने पर प्रश्न होता है कि ज्ञान में शब्दानुविद्धत्व का प्रतिभास किस प्रत्यक्ष से होता है, इन्द्रिय प्रत्यक्ष से अथवा स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से ? २
ज्ञान इन्द्रिय प्रत्यक्ष का विषय नहीं है-इन्द्रिय प्रत्यक्ष से ज्ञान में शब्दानुविद्धत्व का प्रतिभास नहीं हो सकता, क्योंकि इन्द्रिय प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति रूपादि विषयों में होती है । ज्ञान उसका विषय नहीं है।
ज्ञान स्वसंवेदन प्रत्यक्ष का विषय नहीं है-स्वसंवेदन से भी शब्दानुविद्धत्व का प्रतिभास नहीं होता है, क्योंकि स्वसंवेदन शब्द को विषय नहीं करता। अतः सिद्ध है कि प्रत्यक्ष प्रमाण से यह सिद्ध नहीं होता कि ज्ञान में शब्दानुविद्धत्व है। - अनुमान प्रमाण से भी ज्ञान में शब्दानुविद्धत्व की प्रतीति नहीं होती अब यदि माना जाय कि अनुमान प्रमाण से ज्ञान में शब्दानुविद्धत्व की प्रतीति होती है, तो ऐसा कहना भी तर्कसंगत नहीं है। अविनाभावी लिंग के होने पर ही अनुमान अपने साध्य का साधक होता है । यहाँ पर कोई ऐसा लिंग नहीं है, जिससे यह सिद्ध हो सके कि ज्ञान में शब्दानुविद्धत्व है। यदि ऐसा कोई हेतु सम्भव भी हो, तो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से पक्ष के बाधित हो जाने के कारण प्रयुक्त हेतु वास्तविक कालात्ययापदिष्ट नामक दोष से दूषित हेत्वाभास हो जायेगा । अतः ज्ञान में शब्दानुविद्धत्व अनुमान प्रमाण से भी सिद्ध नहीं होता ।
जगत् शब्दमय नहीं है, अतः ज्ञान भी शब्दमय नहीं है-शब्द-अद्वैतवादियों का यह कथन भी ठीक नहीं है कि जगत् के शब्दमय होने से उसके अन्तर्वर्ती ज्ञान भी शब्दस्वरूप हो जायेंगे और इस प्रकार ज्ञान में शब्दानुविद्धत्व सिद्ध हो जायेगा। इस कथन के ठीक न होने का कारण यह है कि जगत् में शब्दमयत्व प्रत्यक्षादि से बाधित है । सविकल्पक प्रत्यक्ष द्वारा पद, वाक्यादि में अनुस्यूत शब्दाकार से भिन्न गिरि, वृक्ष, लता आदि अर्थ स्पष्ट ( विशद ) रूप से प्रतीत होते हैं ।
१. तद्धि प्रत्यक्षेण प्रतीयते अनुमानेन वा ?--प्रभाचन्द्र : प्र०क०मा०, १/३, पृ० ३९ । २. प्रत्यक्षेण चेत्किमैन्द्रियेण स्वसंवेदनेन वा ?—वही, १/३, पृ० ३९-४० । ३. अनुमानात्तेषां · · · · · · मनोरथमात्रम्; तदविनाभाविलिंगाभावात् ।
-प्रभाचन्द्र : प्र० क० मा०, १/३, पृष्ठ ४३१ । ४. तदप्यनुपपन्नमेव; तत्तन्मयत्वस्याध्यक्षादिबाधित्वात्, · · · ।
-वही, पृष्ठ ४३ ।
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