Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 6
Author(s): L C Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No. 6 शब्द से भिन्न पदार्थ नहीं ऐसा कहना भी असंगत एवं दोषयुक्त है
शब्द से भिन्न ( व्यतिरिच्य ) पदार्थ नहीं है, शब्द-अद्वैदवादो का यह कथन भी ठीक नहीं है; क्योंकि ऐसा कहना प्रत्यक्ष प्रमाण से विरुद्ध है। हम प्रत्यक्ष से अनभव करते हैं कि शब्द के देश से भिन्न स्थान में अर्थ रहता है । लोचना विज्ञान के द्वारा शब्द का ज्ञान न होने पर भी अर्थ की प्रतीति होती है । इस प्रकार 'तत्प्रतीतावेव प्रतीयमानत्वात्' इस अनुमान में प्रतीयमानता हेतु असिद्ध है। यदि शब्द के प्रतीत होने पर ही अर्थ की प्रतीति होती हो, तो बधिर को चक्षु आदि प्रत्यक्ष के द्वारा रूप आदि की प्रतीति नहीं होनी चाहिए--यह पहले ही कहा जा चुका है । अतः शब्द से पदार्थ भिन्न है---यह सिद्ध है।
___ इस प्रकार शब्द-अद्वैत का परिशीलन करने से सिद्ध होता है कि इस सिद्धान्त की पुष्टि के लिए शब्द-अद्वैतवादियों ने जो तर्क दिये हैं वे परीक्षा की कसौटी पर सही सिद्ध नहीं होते । अतः शब्द-अद्वैतवादियों का मत युक्तियुक्त नहीं है । स्याद्वाद मत में शब्द के अतिरिक्त अन्य पदार्थों की सत्ता सिद्ध की है। जैनदर्शन में दव्यवाक् और भाववाक् के भेद से वचन दो प्रकार के हैं। द्रव्यवाक् दो प्रकार की होती है-द्रव्य और पर्याय । श्रोत्रेन्द्रिय से जो वाणी ग्रहण की जाती है, वह पर्याय-रुपवाक् है; उसी को शब्द-अद्वैतवादियों ने वैखरी और मध्यमा कहा है। इस प्रकार सिद्ध है कि वैखरी और मध्यमा रूप शब्द पुद्गल द्रव्य की पर्याय हैं। द्र व्यस्वरुप वाणी पुद्गल दव्य है, जिसका किसी ज्ञान में अनुगम होनेवाला है। भाववाक् जैन दर्शन में विकल्पज्ञान और द्रव्यवाक् का कारण है । यह भाववाक् ही शब्द-अद्वैतवाद में पश्यन्ती कही गई है। इस भाव वाणी के बिना जीव बोल नहीं सकते।
१. . . . . , तत्र पक्षस्य प्रत्यक्षबाधा · · · ·।
-न्या० कु० च०, १/५, पृ० १४५ । २. . • इति हेतुश्चासिद्धः, लोचनादिज्ञानेन शब्दाऽप्रतीतावपि अर्थस्य प्रतीयमानत्वात् ।
वही। ३. वही।
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