Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 6
Author(s): L C Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
View full book text
________________
शब्द-अद्वैतवाद का समालोचनात्मक विश्लेषण : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में 99 शक्ति में उसी प्रकार होती है, जैसे काष्ठादि में भोजन पकाने की शक्ति होती है । श्री वादिदेव सूरि ने भी कहा है “स्वाभाविक शक्ति तथा संकेत से अर्थ के ज्ञान करने को शब्द कहते हैं । इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से सिद्ध है कि शब्द और अर्थ में तादात्म्य सम्बन्ध नही है । शब्द-अर्थ में विशेषणीभाव सम्बन्ध भी नही है
शब्द और अर्थ में विशेषणी-भाव भी सिद्ध नहीं होता, क्योंकि विशेषण-विशेष्यभाव दो सम्बद्ध पदार्थों में ही होता है। जैसे-भूतल में घटाभाव । सम्बन्ध रहित दो पदार्थों में विशेषणीभाव उसी प्रकार नहीं होता, जैसे सह्य और विन्ध्याचल में नहीं है। इसी प्रकार शब्द और अर्थ के असम्बद्ध होने से उनमें विशेषणीभाव सम्बन्ध भी नहीं है । वाच्य-वाचक सम्बन्ध मानने पर द्वैत की सिद्धि
शब्द और अर्थ में वाच्य-वाचक भाव मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से वाच्य-पदार्थ और वाचक-शब्द इन दोनों में भेद मानना होगा और ऐसा मानने पर अद्वैत का अभाव और द्वैत की सिद्धि होती है । इस प्रकार विचार करने पर शब्द और अर्थ में कोई सम्बन्ध ही सिद्ध नहीं होता। अत: शब्द-अद्वैतवादियों का यह सिद्धान्त ठीक नहीं है कि अर्थ शब्द से अन्वित है।
शब्द-अद्वैतवादी का यह कथन भी ठीक नहीं है कि "प्रतीति से ज्ञान में शब्दान्वितत्व की कल्पना की जाती है और ज्ञान के शब्दान्वित सिद्ध होने पर अन्यत्र भी कल्पना कर ली जाती है कि संसार के सभी पदार्थ शब्दान्वित है।" शब्द-अद्वैतवादी का यह कथन ठीक न होने का कारण यह है कि कल्पना के आधार पर किसी बात की सिद्धि नहीं हो सकती। दूसरी बात यह है कि ज्ञान और शब्द का द्वैत मानना पड़ेगा। इसलिए 'न सोऽस्ति प्रत्ययोलोके इत्यादि कथन ठीक नहीं है। एक बात यह भी है कि चाक्षुष-प्रत्यय में शब्द-संस्पर्श के अभाव में भी अपने अर्थ का प्रकाशक होने से ज्ञान सविकल्पक होता है।
१. ननु · · · · तदभावेऽप्यस्याः संकेतसामार्थ्यादुपपद्यमानत्वात् । शब्दानां सहयोग्यतायुक्तानामर्थ तोतिप्रसावकत्वात् काष्ठादीनां पाकप्रसाधकत्वम् ।
-प्रभाचन्द्र : न्या० कु० च०, पृ० १४४ । २. प्रमाणनयतत्वालोकालंकार । ३. नाऽपि विशेषणीभावः, सम्बन्धान्तरेणा · · · सह्यविन्ध्यादिवत् सद्भावस्यानुपपत्तेः ।
-~-न्या० कु० च०, १/५, पृ० १४४ । ४. तदेवं शब्दार्थयोः अद्वैताविरोधिनः सम्बन्धस्य कस्यचिदपि विचार्यमाणस्यानुपपत्तेः
न शब्देनान्वितत्वमर्यस्य घटते । --प्रभाचन्द्र : न्या० कु० च०, १/५, पृ० १४५ । ५. - वही - ६. शब्द-अतवादी हि भवान् न च तत्र शब्दो बोधश्चेति द्वयमस्ति ।
वादिदेवसूरि : स्या० र०, पृ० ९२ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org