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आचार्य हेमचन्द्र के प्राकृत धात्वादेशों में
बज्जिका के क्रिया-रूप
डॉ. योगेन्द्र प्रसाद सिंह संस्कृत वैयाकरणों ने अनेक स्थानों पर धातुओं के स्थान में आदेशों का विधान किया है। यथा-"प्राघ्राध्यास्था" आदि के स्थान में शित् प्रत्यय परे "पिबजिघ्रघमतिष्ठ" आदेश होता है। पूरे सूत्र “पाघ्राध्यास्था म्नादाण् दृश्यतिसतिशदसदां पिबजिघ्रधमतिष्ठमनयच्छपश्यच्छ धौ शीयसीदाः'' में पा (पिबति), घ्रा (जिघ्रति), ध्मा (धमति), स्था (तिष्ठति), म्ना (मनति), दाण (यच्छति), दृशि (पश्यति), ऋ (ऋच्छति), सृ (धावति), शद् (शीयते), सद् (सीदति) धातुएँ और आदेश (कोष्ठक में) दिए गये हैं। ये आदेश क्या है ? इस पर वैयाकरणों ने विचार कर निश्चित किया है कि ये आदेश धात्वन्तर हैं । जो उन्हीं धातु के अर्थ में प्रयुक्त होते रहे हैं । निरूक्त में मधुधर्मतेविपरीतस्य तथा उणादिसूत्र अतिसृ घृ धम्यम्यशिम्यो निः3 में धम का स्वतन्त्र धातु के रूप में प्रयोग किया गया है। क्षीरस्वामी ने ध्या धातु के व्याख्यान में लिखा है-धमिः प्रकृत्यन्तरमित्येके , बाल्मीकि रामायण में विधमिष्यामि जीमूतान् श्लोक खण्ड में धमि धातु का प्रयोग किया गया है।
अश्नोतेः रश च में आदेश रूप से निर्दिष्ट धातु "रश" भी स्वतन्त्र धातु है ।
यहाँ संस्कृत धातु के संस्कृत धात्वन्तर (धात्वादेश) के विषय में विवरण आया है। अब संस्कृत धातु के प्राकृत धात्वन्तर (धात्वादेश) तथा देशी शब्द (शब्दों के आदेश) का विवरण उपस्थित किया जायेगा। _____ आचार्य हेमचन्द्र ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में हुए। उन्होंने देशी शब्दों का संग्रह देशी नाममाला के नाम से किया । उसमें देशीशब्दों को परिभाषित किया गया है। उन्होंने कहा है कि ऐसे शब्द जो प्रकृतिप्रत्ययादि के द्वारा निष्पन्न नहीं होते, उक्त संग्रह में रखे गये है। हेमचन्द्र की परिभाषा को डॉ० नेमिचन्द्र जैन ने इस प्रकार रखा है-जो शब्द न तो
१. अष्टाध्यायी, ७।३।७८ । २. निरुत, १०।३१ । ३. उणादि २७५ । ४. क्षीरतरंगिणी, १६५९ । ५. वाल्मीकि रामायण, सुन्दरकाण्ड ६७।११ । ६. उणादिसूत्र, ३।७५ तथा युधिष्ठिर मीमांसक : संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास, तृतीय
भाग, पृष्ठ २४ ।
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