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शब्द-अद्वैतवाद का समालोचनात्मक विश्लेषण : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में 91 कि घट, पटादि कार्य-समूह शब्दब्रह्म से भिन्न उत्पन्न होता है, तो प्रत्युत्तर में जैन दार्शनिक कहते हैं कि शब्द-अद्वैतवादी का 'शब्दब्रह्मविवर्तमर्थरूपेण' ( शब्दब्रह्म अर्थरूप से परिणमन करता है ) यह कथन कैसे बनेगा अर्थात् नहीं बनेगा । शब्दब्रह्म से जब घट-पटादि पदार्थ उत्पन्न होते हैं और वे उनके स्वभाव रूप नहीं हैं, तो यह कहना उचित नहीं है कि घट, पटादि शब्दब्रह्म की पर्याय है।
शब्दब्रह्म से घटादि कार्य भिन्न हैं, तो अद्वैतवाद का विनाश और द्वैतवाद की सिद्धि होती है । क्योंकि, शब्दब्रह्म से भिन्न कार्य की स्वतन्त्र सत्ता सिद्ध हो जाती है । अतः घटादि कार्य समूह शब्दब्रह्म से भिन्न उत्पन्न होता है-यह मान्यता ठीक नहीं है । घटादि कार्य की शब्दब्रह्म से अभिन्न उत्पत्ति मानने में शब्दब्रह्म में अनादिनिधनत्व का विरोध है
उपर्युक्त दोष से बचने के लिये शब्द-अद्वैतवादी यह माने कि घटादि कार्य शब्दब्रह्म से अभिन्न रूप होकर उत्पन्न होता है, तो उनकी यह मान्यता भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर शब्दब्रह्म में अनादिनिधनत्व का विरोध प्राप्त होता है । अर्थात् शब्दब्रह्म में अनादिनिधनता नहीं रहेगी। प्रत्यक्ष में हम देखते हैं कि शब्दब्रह्म से उत्पन्न होनेवाले घटादि कार्य उत्पाद और विनष्ट स्वभाव वाले हैं और शब्दब्रह्म उनसे अभिन्न है। अतः उत्पत्ति और विनाशशील पदार्थों के साथ शब्दब्रह्म की एकता होने के कारण शब्दब्रह्म का एकत्व नष्ट हो जायेगा । अतः घटादि कार्य शब्दब्रह्म से उत्पन्न होकर उससे अभिन्न रूप रहते हैं, ऐसा मानना तर्कहीन है ।
इस प्रकार विशुद्ध रूप से विवेचन करने पर यह सिद्ध हो जाता है कि सम्पूर्ण जगत् शब्दमय नहीं है।
ज्ञान शब्दानुविद्ध नहीं है शब्द-अद्वैतवादियों का यह कथन तर्कहीन है कि शब्द के बिना ज्ञान नहीं होता। प्रभाचन्द्राचार्य 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' में उनसे प्रश्न करते हैं कि यदि ज्ञान में शब्दानुविद्वत्व का प्रतिभास होता है अर्थात् ज्ञान शब्दानुविद्ध है, तो इसकी प्रतीति किसको होती है और किस
१. वादिदेव सूरि : स्या० र०, १/७, पृ० १०१ । २. (क)-वही--
(ख) प्र० क० मा०, १/३, पृ० ४४ । ३. अनर्थान्तरभूतस्य तु कार्यग्रामस्योत्पत्तौ शब्दब्रह्मणोऽनादिनिधनत्वविरोधः । तदुत्पत्तौ
तस्याप्यनर्थान्तरभूतस्योत्पद्यमानत्वादुत्पन्नस्य चावश्यं विनाशित्वादिति । (क) स्या० २०, पृ० १०१ । (ख) प्र० क० मा०, पृ० ४४ ।
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