Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 6
Author(s): L C Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No. 6 है। न कि निर्बल बलशाली के स्वभाव को, जैसे—सूर्य तारों के स्वभाव का अभिभव कर देता है। इस अनुमान से सिद्ध है कि अविचारणीय स्वभाव वाली अविद्या से शब्दब्रह्म के स्वभाव का अभिभव नहीं हो सकता' ।
एवंविध सिद्ध होता है कि शब्द ब्रह्म के असत्य होने से अयोगी अवस्था में आत्मज्योतिस्वरूप शब्दब्रह्म अप्रकाशित रहता है। अविद्या के अभिभूत होने से नहीं। अयोगीदशा में शब्दब्रह्म के असत् सिद्ध होने से यह भी सिद्ध हो जाता है कि योगी अवस्था में उसका अस्तित्व नहीं रहता। अतः इन्द्रिय प्रत्यक्ष की भाँति अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष से भी उस शब्दब्रह्म की सत्ता सिद्ध नहीं होती। स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से भी शब्दब्रह्म का सद्भाव सिद्ध नहीं होता
स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से भी शब्दब्रह्म का सद्भाव सिद्ध नहीं होता; क्योंकि आ० विद्या नन्द कहते हैं कि पहली बात यह है कि शब्द-अद्वैतवादियों ने बौद्धों द्वारा मान्य क्षणिक और निरंश ज्ञान की स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से सिद्धि नहीं हो सकती, तो शब्दब्रह्म की सिद्धि उससे कैसे हो सकती है ?
दूसरी बात यह है कि मुक्तिरहित वचनमात्र से शब्दब्रह्म की सत्ता मान लेना भी युक्तियुक्त नहीं है। अन्यथा अश्व-विषाण आदि असत् पदार्थों का सद्भाव सिद्ध हो जायेगा।
प्रभाचन्द्राचार्य ने भी स्वसंवेदन प्रत्यक्ष द्वारा शब्दब्रह्म की प्रतीति का निराकरण करते हए कहा है कि स्वप्न में भी आत्मज्योति स्वभाव शब्दब्रह्म की प्रतीति स्वसंवेदन के द्वारा नहीं हो सकती। यदि स्वसंवेदन में उसकी प्रतीति होने लगे; तो बिना प्रयत्न किये समस्त प्राणियों को मोक्ष हो जायगा। क्योंकि, शब्द-अद्वैत-सिद्धान्त में यह माना गया है कि आत्मज्योति स्वभाव शब्बब्रह्म का स्वसंवेदन होना मोक्ष है । अभयदेव सूरि और कमलशील ने
१. वही । २. (क) स्या० र० १/७, पृ० १०० ।
(ख) न्या० कु० च०, १/५, पृ० १४३ । ३. स्वतः संवेदनासिद्धिः क्षणिकानंशवित्तिवत् । न परब्रह्मणो नापि सा युक्ता साधनाद्विना ।।
-त० श्लो० वा०, १३, सू० २०, श्लोक ९, पृ० २४० । ४. • • • • आत्मज्योतिः स्वभावस्यास्य स्वप्नेऽपि संवेदनाऽगोचरत्वात्, तद्गोचरत्वे वा
अनुपायसिद्ध एव अखिलप्राणीनां मोक्षः स्यात्तु, तथाविधस्य हि शब्दब्रह्मणः स्वसंवेदनं यत् तदेव मोक्षो भवतामभिमतः ।
-प्रभाचन्द्र, न्या० कु० ५०, १/५ पृ० १४३ ।
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