Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 6
Author(s): L C Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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प्राकृत भाषा की उत्पत्ति और प्राकृत अभिलेखों
का महत्त्व
प्रो. डा० चन्द्रदेव राय मनुष्य के मस्तिष्क में अब विचार उठे होंगे, तभी भाषा भी आयी होगी। पाणिनि ने लिखा है
"आत्मा बुद्धया समेत्यार्थान् मनो यूङक्ते विवक्षया। मनः कायाग्निमाहन्ति स प्रेरयति मारुतम् ॥"
--पाणिनीय शिक्षा श्लोक-६ . "अर्थात् आत्मा बुद्धि के द्वारा अर्थों को समझ कर मन को बोलने की इच्छा से प्रेरित करती है। मन शरीर की अग्नि-शक्ति पर जोर डालता है और वह शक्ति आयु को प्रेरित करती है, जिससे शब्द-वाक् की उत्पत्ति होती है।"
उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि मनुष्य के विकास के साथ-साथ वाणी का भी विकास हुआ है । अतएव आदिकाल में यदि भिन्न-भिन्न स्थानों पर मनुष्य समाज का विकास हुआ होगा, तो संभव है कि भिन्न-मिन्न भाषाएं आरम्भ से विकसित हुई हों। यदि एक ही स्थान पर सुसंगठित रूप में मनुष्य समुदाय का आविर्भाव माना जाय तो आरम्भ में एक भाषा का अस्तित्व स्वयमेव सिद्ध हो जाता है । अतः स्थान और काल भेद से ही भाषाओं में वैविध्य उत्पन्न होता है। इसमें सन्देह नहीं कि मनुष्य की भाषा सृष्टि के आरम्भ से ही निरन्तर प्रवाह रूप में चली आ रही है, पर इस प्रवाह के आदि और अन्त का पता नहीं है। नदी की वेगवती धारा के समान भाषा का वेग अनियन्त्रित रहता है । अतः यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि वर्तमान में भाषाओं की जो विभिन्नता दृष्टिगोचर हो रही है, वह कितनी प्राचीन है और न यही कहा जा सकता है कि मानव सृष्टि का विकास पृथ्वी के किस विशिष्ट स्थान में हुआ है।
__ आज से अरबों वर्ष पहले पृथ्वी की उत्पत्ति हुई। कई प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद उस पर पेड़-पौधों और जीव-जन्तुओं का प्रादुर्भाव हुआ। उनके प्रादुर्भाव होने के लाखों वर्ष बीत जाने के बाद आदि मानव की उत्पत्ति हुई। प्रारम्भ में मनुष्य पहाड़ों और जंगलों में उसी प्रकार नंगे शरीर धूमते थे जिस प्रकार जंगली जानबर घूमते और स्वेच्छाचर करते
*रीडर, संस्कृत-प्राकृत विभाग, हरप्रसाद दास जैन महाविद्यालय, आरा, ( मगध विश्वविद्यालय, बोधगया)
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