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शब्द-अद्वैतवाद का समालोचनात्मक विश्लेषण : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में 73 (घ) शब्दब्रह्म जगत् की प्रक्रिया है
घट-पट आदि भेद-प्रभेद रूप जो यह दृश्यमान् जगत् है, वह शब्दब्रह्ममय है। अर्थात्, शब्दब्रह्म से भिन्न जगत् की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। क्योंकि सम्पूर्ण पदार्थ शब्दब्रह्म से उत्पन्न
समस्त जगत् शब्दब्रह्ममय है
शब्द-अद्वैतवादियों ने इस सम्पूर्ण विश्व को ब्रह्ममय बतलाया है, क्योंकि विश्व उसका विवर्त है । संसार के सभी पदार्थ शब्दाकार-युक्त हैं, यह प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है । ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है, जो शब्दाकार युक्त न हो ।'
___ दूसरी बात यह है कि जो जिस आकार से अनुस्यूत होते हैं, वे तद्रूप होते हैं। जैसे घट, सकोरा, दीया आदि मिट्टी के आकार से अनुगत होने के कारण मिट्टीरूप ही होते हैं । संसार के सभी पदार्थ शब्दाकार से अनुस्यूत हैं, अतः सम्पूर्ण जगत् शब्दमय है। इस प्रकार अनुमान-प्रमाण से शब्द-अद्वैतवादी जगत् को शब्दब्रह्ममय सिद्ध करते हैं ।२
____ केवलान्वयी अनुमान के अतिरिक्त केवल व्यतिरेकी अनुमान के द्वारा भी उन्होंने जगत् को शब्दब्रह्ममय सिद्ध किया है । यथा--अर्थ शब्द से भिन्न नहीं हैं, क्योंकि वे प्रतीति अर्थात् ज्ञान में प्रतीत होते हैं। जो प्रतीति में प्रतीत होते हैं, वे उससे भिन्न नहीं होते, जैसे-शब्द का स्वरूप । अर्थ की प्रतीति भी शब्द ज्ञान के होने पर होती है। इसलिए अर्थ शब्दब्रह्म से भिन्न नहीं हैं । इस प्रकार प्रत्यक्ष प्रमाण से शब्दब्रह्म की सिद्धि होती है। ज्ञान भी शब्द के बिना नहीं होता
समस्त जगत् का शब्दब्रह्मरूप सिद्ध करने के बाद शब्द-अद्वै तवादी कहते हैं कि संसार के सभी ज्ञान शब्दब्रह्मरूप हैं। उनका तर्क है कि समस्त ज्ञानों की सविकल्पता का कारण भी यही है कि वे शब्दानुषिद्ध अर्थात् शब्द के साथ अभिन्नरूप से संलग्न हैं । ज्ञानों की वागरूपता शब्दानुविद्धत्व ( शब्द से तादात्म्य संबन्ध ) के कारण हैं । शब्दानुविद्धत्व के बिना उनमें प्रकाशरूपता ही नहीं बनेगी। तात्पर्य यह है कि ज्ञान शब्द संस्पर्श रूप है, इसलिए वे सविकल्पक और प्रकाशरूप हैं। यदि ज्ञान को शब्द-संस्पर्श से रहित माना जाय तो वे न तो सविकल्प (निश्चयात्मक ) हो सकेंगे और न प्रकाशरूप' । फलतः न तो ज्ञान वस्तुओं को प्रकाशित कर सकेगा और न उनका निश्चय कर सकेगा।
__ अतः ज्ञान में जो वाग्रूपता है, वह नित्या ( शाश्वती ) और प्रकाश-हेतुरूपा है। ऐसी वाररूपता के अभाव में ज्ञानों का और कोई रूप अर्थात् स्वभाव शेष नहीं रहता। यह
१. प्रभाचन्द्र : न्यायकुमुदचन्द्र, १/५, पृ० १८९ । २. वही। ३. वही, पृ० १४१–१४२ । ४. वही, पृ० १४०; प्रभाचन्द्र : प्र० क० मा०, १/३, पृ० ३९ । ५. शब्दसम्पर्कपरित्यागे हि प्रत्ययानां प्रकाशरूपताया एवाभावप्रसक्तिः ।
--स्याद्वादरत्नाकर, १/७, पृष्ठ ८८-८९ ।
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