Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 6
Author(s): L C Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No. 6 एक प्रश्न के प्रत्युत्तर में जैन तर्कशास्त्री यह भी कहते हैं कि योग्यावस्था में शब्दब्रह्म स्वयं आत्मज्योतिरूप से प्रकाशित होता है । यह मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस प्रकार की कल्पना करने पर भी योगावस्था, ज्योतिरूप और स्वयं प्रकाशन इन तीन को सत्ता सिद्ध होने से द्वैत की सिद्धि और अद्वैत का अभाव सिद्ध होता है ।
शब्द-अद्वैतवादियों को एक बात यह भी स्पष्ट करनी चाहिए कि योग्यावस्था में आत्मज्योतिरूप से प्रकाशित होने के पूर्व शब्दब्रह्म आत्मज्योतिरूप से प्रकाशित होता है कि नहीं ? यदि शब्दब्रह्म योग्यावस्था के पूर्व आत्मज्योतिरूप से प्रकाशित होता है, यह माना जाय तो समस्त संसारी जीवों को बिना प्रयत्न के मोक्ष हो जायेगा, क्योंकि शब्द-अद्वैतसिद्धान्त में ज्योतिरूप ब्रह्म का प्रकाश हो जाना ही मोक्ष कहा गया है । अयोग्यावस्था में इस प्रकार के ज्योतिस्वरूप ब्रह्म के प्रकाशित हो जाने पर सबका मुक्त हो जाना युक्तिसंगत है। लेकिन ऐसा कभी हो नहीं सकता। अतः सिद्ध है कि योग्यावस्था के पूर्व आत्मज्योति का प्रकाश नहीं होता है ।
अब यदि उपर्युक्त दोष से बचने के लिये यह माना जाय कि योग्यावस्था के पूर्व आत्मज्योतिरूप से प्रकाशित नहीं होता है, तो इसका कारण बतलाना चाहिये कि वह क्यों नहीं प्रकाशित होता ? यहाँ भी विकल्प होते हैं कि क्या वह शब्दब्रह्म है कि नहीं ४ ? यदि शब्द-अद्वैतवादी यह मानें कि वह अयोग्यावस्था में नहीं रहता, तो उसे नित्य नहीं मानना चाहिये, क्योंकि वह कभी होता है और कभी नहीं होता। यह नियम है कि जो कदाचित अर्थात् कभी-कभी होता है, वह नित्य नहीं होता, जैसे-अविद्या । ज्योतिस्वरूप ब्रह्म भी अविद्या की तरह कभी-कभी होता है अर्थात् योग्यावस्था में होता है और अयोग्यावस्था में नहीं होता। अतः वह भी अविद्या की तरह अनित्य है। इस प्रकार ब्रह्म और अविद्या का द्वैत भी सिद्ध होता है। अतः शब्द-अद्वैत-सिद्धान्त खण्डित हो जाता है " ।
अब यदि यह माना जाय कि अयोग्यावस्था में शब्दब्रह्म आत्मज्योतिरूप से प्रकाशित नहीं होता, फिर भी वह है, तो अभयदेवसूरि की भाँति न्यायकुमुदचन्द्र में प्रभाचन्द्र और
१. - वही - २. (क) किं च, योग्यावस्थायां तस्य तद्रूपप्रकाशनेन ततः प्राक् तद्रूपं प्रकाशते न वा?
(ख) अभयदेव सूरि : सन्मतितर्कप्रकरण टीका, तृतीय काण्ड, पृ० ३८५ । (ग) तत्वसंग्रहपञ्जिका, पृ० ७४ । ३. (क) तत्वसंग्रहपञ्जिका, पृ० ७४ ।
(ख) सन्मतितर्कप्रकरणटीका, तृतीय काण्ड, पृ० ३८५ । ४. अथ न प्रकाशते, तदा तत्किमस्ति, न वा ?
-प्रभाचन्द्र , न्या० कु० च ०, पृ० १४२ ५. -वही
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