Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 6
Author(s): L C Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
View full book text
________________
शब्द-अद्वैतवाद का समालोचनात्मक विश्लेषण : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में 77 श्रोत्रजन्य प्रत्यक्ष का विषय नहीं है । यथा-"जो जिसका विषय नहीं होता, वह उससे अन्वित रहने वाले को कभी भी जानने में समर्थ नहीं हो सकता। जैसे-चक्षु-ज्ञान रसनेन्द्रिय से नहीं जाना जाता। चूंकि समस्त संसार के सभी पदार्थों में अन्वित रूप से रहने वाला शब्दब्रह्म श्रोत्रेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष का विषय नहीं है, अतः श्रोत्रेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष भी उपरिवत् उसका साधक नहीं हो सकता।"' श्रोत्रेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष का विषय न होने पर भी यदि शब्द-अद्वैतवादी श्रोत्रेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष को शब्दब्रह्म का साधक मानेंगे तो समस्त इन्द्रियों से सभी पदार्थों के ज्ञान का !.संग आयेगा, जो किसी को मान्य नहीं है। अतः सिद्ध है कि श्रोत्रेन्द्रियजनित प्रत्यक्ष शब्दब्रह्म का साधक नहीं है । शब्द श्रोत्रेतरेन्द्रिय का विषय नहीं है
__ श्रोत्रेन्द्रिय-भिन्न इन्द्रिय से जन्य प्रत्यक्ष भी शब्दब्रह्म का साधक नहीं है, क्योंकि शब्द उन इन्द्रियों का विषय नहीं है । अतः इन्द्रिय प्रत्यक्ष के द्वारा शब्दब्रह्म की प्रतीति नहीं हो सकती। अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष भी शब्दब्रह्म का साधक नहीं है
इन्द्रिय प्रत्यक्ष की भाँति अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष के द्वारा भी शब्दब्रह्म की सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती, क्योंकि शब्द-अद्वैतवाद में अतिन्द्रिय प्रत्यक्ष की कल्पना भी नहीं की जा सकती । इसके उत्तर में शब्द-अद्वैत वादियों का कहना है कि अभ्युदय और निःश्रेयस फल वाले धर्म से अनुगृहीत अन्तःकरण वाले योगीजन उस शब्दब्रह्म को देखते हैं । अतः उनके अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष से शब्दब्रह्म का अस्तित्व सिद्ध होता है। इसके प्रत्युत्तर में प्रभाचन्द्राचार्य एवं वादिदेवसूरि कहते हैं कि ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि पहली बात तो यह है कि शब्दब्रह्म को छोड़कर अन्य कोई परमार्थभूत योगी नहीं है, जो उसे देखता हो। दूसरी बात यह है कि शब्दब्रह्म के अतिरिक्त पारमार्थिक रूप से योगी मानने पर योगी, योग और उससे उत्पन्न प्रत्यक्ष इन तीन तत्वों को मानना पड़ेगा और ऐसा मानने से अद्वैतवाद का अभाव हो जायेगा।
१. यद् यदगोचरो न तत्तेनान्वितत्वं कस्यचित् प्रतिपत्तुं समर्थम् यथा चतुर्ज्ञानं रसेन, अगोचरश्च तदाकारनिकटः श्रोत्रज्ञानस्येति ।
-न्या० कु० च०, १/५, पृ० १४२ । (ख) स्या० र०, १/७, पृ० ९८ । २. (क) स्या० र०, ७/६, पृ० ९८ ।
(ख) न्या० कु० च०, १/५, पृ० १४२ । ३. नाप्यतीन्द्रियप्रत्यक्षात्; तस्यैवात्राऽसंभवात् ।
(क) प्रभाचन्द्र : न्या० कु० च०, पृ० १४२ ।
(ख) वादिदेवसूरि : स्याद्वादरत्नाकर, १/७, पृ० ९९ । ४. - वही -
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org