Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 6
Author(s): L C Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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शब्द-अद्वैतवाद का समालोचनात्मक विश्लेषण : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में 71 चार प्रकार माने हैं—वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती और सूक्ष्मा' । भर्तृहरि ने पश्यन्ती का वही स्वरूप बतलाया है, जो नव्य-वैयाकरणों ने सूक्ष्मा का बतलाया है। इन भेदों का स्वरूप भी शब्द-अद्वैतवादियों ने प्रतिपादित किया है ।
वैखरी-मनुष्य, जानवर आदि बोलने वाले के कंठ, तालु आदि स्थानों में प्राणवायु के फैलने से ककारादि वर्गों को व्यक्त करने वाली स्थूल वाणी वैखरी वाक् कहलाती है। इस कथन से स्पष्ट है कि वैखरी का सम्बन्ध हर प्रकार की व्यक्त ध्वनियों के साथ है।
मध्यमा—यह वैखरी की अपेक्षा सूक्ष्म होती है। इसका व्यापार अन्तरंग होता है । प्राणवाय का अतिक्रमण कर अन्तरंगजल्परूप जो वाक् है, वह मध्यमावाक् कहलाती है। मध्यमा वाणी उस अवस्था में होती है, जब वक्ता के शब्द बोलने के पहले भीतर ही होते हैं । चिन्तन करना मध्यमा का कार्य है । श्रुत में प्रविष्ट होकर उसका विषय बनने वाली वाक् मध्यमावाक् का स्वरूप है।
पश्यन्ती-यह मध्यमा से सूक्ष्म होती है । भर्तृहरि ने पश्यन्ती को सूक्ष्यतम बतलाया है। उन्होंने कहा है कि पश्यन्ती वर्ण, पद आदि क्रम से रहित (प्रतिसंहृत), अविभागरूप, चला (क्योंकि शब्दाभिव्यक्ति में गति है), अचला (क्योंकि अपने विशुद्ध रूप में निःस्पंद रहती है), स्वप्रकाश तथा संविद्रूप होती है। भर्तृहरि ने इसे परब्रह्मस्वरूपिणी कहा है। यह अक्षर, शब्द, ब्रह्म और परावाक् भी कहलाती है।
पश्यन्ती में वाच्य-वाचक का विभाग प्रतीत नहीं होता । इसके अनेक भेद होते हैं, जैसे—परिच्छिन्नार्थप्रत्यवभास, संसृष्टार्थप्रत्यवभास और प्रशान्तसर्वार्थप्रत्यवभास ।
सूक्ष्मा ( परावाक् )-नागेश आदि नव्य-वैया करणों ने सूक्ष्सा को ज्योतिस्वरूपा,
१. चतुविधा हि वाग्वैखरी-मध्यमा-पश्यन्ती-सूक्ष्मा चेति ।
विद्यानन्द : श्लोकवार्तिक, अध्याय १, ३, पृ० २४० । और भी देखें---उपाध्याय बलदेव : भारतीयदर्शन, पृ० ६४९ । २. वैखरी-शब्दनिष्पत्ती मध्यमा श्रुतिगोचरा । द्योतितार्था च पश्यन्ती-सूक्ष्मा-वागनपायिनी ।
-कुमारसम्भव टीका, उद्धृत, प्र० क० मा०, पृ० ४२ । ३. स्थानेषु विवृते वायी कृतवर्णपरिग्रहा।
वैखरी-वाक्-प्रयोक्तृणां प्राणवृत्तिनिबन्वना ।। ४. प्राणवृत्तिमतिक्रम्य मध्यमा वाक् प्रवर्तते । ५. 'अविभागाऽनुगा तु पश्यन्ती सर्वतः संहृतक्रमा' ।
और भी द्रष्टव्य-स्या० र० पृ० ९० । ६. संविच्च पश्यन्तीरूपा परावाक् शब्दब्रह्ममयीति ब्रह्मतत्त्वं शब्दात् पारमाथिकान्न भिद्यते विवर्तदशायां तु वैखर्यात्मनाभेदः ।।
-हेलाराज : वाक्यपदीय, ३, ११, उद्धृत बलदेव उपाध्याय भा०, पृ० ६४९ ।
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