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प्राकृत भाषा की उत्पत्ति और प्राकृत अभिलेखों का महत्त्व
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चतुर्थ स्तम्भ अभिलेख में अशोक ने स्वयं उसने प्रजा के हितचिन्तन पर विशेष बल कौशाम्बी, तक्षशिला, उज्जैनी, तोसल्ली, अशोक के अष्टम अभिलेख में आए इससे स्पष्ट है कि
राज्य में परिभ्रमण करने की आज्ञा दी गयी है । रज्जुक के विभिन्न कार्यों का निर्देश किया है। दिया है । अभिलेखों से स्पष्ट है कि पाटलिपुत्र, स्वर्णगिरि नामक प्रान्तों में शासन विभक्त किया था । हुए वाक्य --- " सम्बोधित तेनेसा धर्म यात्रा" मिलता है। उसने बौद्ध धर्म में प्रवेश कर धर्म यात्रा आरम्भ की और प्रथम जन्म स्थान लुम्बुनी पहुँचा । तत्पश्चात् ज्ञान प्राप्त के स्थान बोधगया भी गया । सम्बोधि धर्म माता से बोधगया तीर्थयात्रा का संकेत प्राप्त होता है । अन्य स्थानों के सम्बल में कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता है, पर सारनाथ का स्तम्भ लेख तथा धर्मराज का स्तम्भ लेख निर्माण अशोक की सारनाथ तीर्थयात्रा को प्रमाणित करता है । सारनाथ स्तम्भ लेख में संध-भेद के प्रसंग में पाटलीपुत्र का नाम उल्लिखित है ।
३. अभिलेखों में जनता के प्रधान कर्तव्यों का भी विवेचना किया गया है। बताया गया है कि माता-पिता की सेवा, प्राणियों के प्राणों का आदर, विद्यार्थियों को आचार्य की सेवा एवं जातिभाइयों के साथ उचित व्यवहार करना चाहिये। दूसरों के धर्म और विश्वासों के साथ सहानुभूति रखने का निर्देश करते हुए द्वादश अभिलेख में लिखा है" देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी विविध दान और पूजा से गृहस्थ तथा संन्यासी सभी सम्प्रदाय वालों का सत्कार करते हैं, किन्तु देवताओं के प्रिय दान या पूजा की इतनी परवाह नहीं करते हैं, जितने इस बात की कि इन सम्प्रदायों में सार वृद्धि हो । सम्प्रदायों के "सार" की वृद्धि कई प्रकार से होती है, पर उसका मूल वाक् संयम है अर्थात् लोक के बल ही सम्प्रदाय को आदर और दूसरों की निन्दा न करे ।" तृतीय अभिलेख में बताया कि माता-पिता की सेवा करना, मित्र, परिचित एवं स्वजातीय ब्राह्मण को दान देना अच्छा है । कम खर्च करना और कम संयम करना भी हितकर है।
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४. यात्रियों की सुख-सुविधा का निरूपण करते हुए सम्पन्न अभिलेख में बताया गया है कि सड़कों पर मनुष्य और पशुओं को छाया देने के लिए बरगद के पेड़ लगवायें, आम्र वाटिकाएँ लगवायें, आधे-आधे कोस पर कुएँ खोदवायें, सराय बनवायें और जहाँ-तहाँ मनुष्यों तथा पशुओं के उपकार के लिए तालाब खोदवायें । रोगी मनुष्य और पशुओं की व्यवस्था का प्रतिपादन द्वितीय अभिलेख में किया गया है । उस समय मनुष्य तथा पशुओं के लिए चिकित्सा का पूरा प्रबन्ध था ।
५. द्वितीय स्तम्भ लेख में धर्म के सार्वजनिक स्वरूप का विवेचन किया है । धर्म यह रूप किसी सम्प्रदाय विशेष का नहीं है, मानव रूप किसी सम्प्रदाय विशेष का नहीं है, मानव मात्र का है। बताया गया - "अपासिनवे बहूक याने दया दान सचे य सांचये"पाप से दूर रहना, बहुत अच्छे कल्याण के कार्य करना तथा दया, दान, सत्य एवं शौच का - पालन करना धर्म है ।
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६. जीवन में अहिंसा को उतारने के लिए आहार पान की शुद्धि का भी निर्देश किया गया है । मांस-मदिरा का त्याग कर शुद्ध शाकाहारी बनने की ओर संकेत किया है ।
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