Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 6
Author(s): L C Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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प्राकृत भाषा की उत्पत्ति और प्राकृत अभिलेखों का महत्त्व
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कहलाते रहे; किन्तु जिन्हें ज्ञानार्जन और तप में अधिक रुचि थी, वे ऋषि-मुनि बन गये । ऋषियों ने त्याग की जीवन अपनाया। उन्होंने जंगलों में कुटिया बनाकर ज्ञानार्जन करना प्रारम्भ किया। उनका कठोर श्रम ही तप हुआ तथा ज्ञान प्राप्ति ही ईश्वर प्राप्ति का साधन बना । जो जितना ही ज्ञानार्जन के क्षेत्र में आगे बढ़ते; उनपर भगवान् उतना ही प्रसन्न होते थे। आज भी जो ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में जितने आगे हैं, लक्ष्मी और नारायण उतने ही निकट हैं। उस समय देवताओं ने शासन का भार सम्हाला तथा दुष्ट दानवों से ऋषियों और जनसाधारणों की रक्षा की। देवासुर संग्राम और चण्डिका देवी का प्रादुर्भाव उन्हीं काल खण्डों में हुआ। हमारे आर्यावर्त में सभ्यता का तीव्र विकास तथा आर्थिक प्रगति को देखकर बाहर के लोग जलते थे। हमारी समृद्धि को देखकर तथा दुष्ट स्वभाव के कारण वे हम पर बार-बार आक्रमण करते थे। यही कारण था कि आक्रमणकारियों को राक्षस कहा जाने लगा। बार-बार आक्रमण के बावजूद हमारे ऋषियों ने अपनी तपस्या जारी रखी। ज्ञानार्जन के क्षेत्र में उनका कठोर श्रम चलता रहा। वेद, उपनिषद्, श्रति, स्मृति, पुराण आदि विभिन्न महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का निर्माण उन्हीं कालखण्डों में हुआ। इस प्रकार पचासों हजार वर्ष निकल गये, किन्तु सम्पूर्ण आर्यावर्त में दो ही भाषा प्रचलित रहीदेवभाषा और मानुषी भाषा । देवभाषा को आगे चलकर संस्कृत नाम दिया गया, क्योंकि उसमें संस्कार पड़ा था। मानुषी भाषा स्वाभाविक रूप से फूटकर निकली थी, अतः उसे प्राकृत नाम से पुकारा गया। महाकवि वाल्मीकि के समय तक लोग संस्कृत को देवभाषा
और प्राकृत को मानुषी भाषा ही कहते थे। परन्तु उनके समय तक आते-आते संस्कृत द्विजाति मात्र की भाषा मानी जाने लगी थीं । वाल्मीकि रामायण के सुन्दरकाण्ड में हनुमान जब सीता की पता लगाते हुए लंका की अशोक वाटिका में पहुँचते हैं; तब चिन्ता होती है कि उन्हें कैसे टोका जाय, क्योंकि सीता से इनका पूर्व परिचय तो है ही नहीं। यदि द्विजाति की तरह संस्कृत में बात करेंगे, तो मायावटी रावण समझकर सीता भय खाने लगेंगी--
यदि वाचं प्रादास्यामि द्विजाति इव संस्कृताम् । रावणं मन्यमाना मां सीता भीता भविष्यति ॥
(वाल्मीकि रामायण, सुन्दरकाण्ड--५/१८) ऐसी स्थिति में सर्वभाषाविद् हनुमान् निर्णय करते हैं कि सीता को संस्कृत ( देवभाषा) में न टोककर मानुषी ( प्राकृत ) भाषा में ही टोका जाय : किन्तु उस समय सक मानुषी भाषा के भी भौगोलिक कारणों से अनेक रूप दिखलाई देने लगे थे । अतः हनुमान ने उत्तर भारत की मानुषी भाषा या विदेह जनपद की मानुषी भाषा में ही सीता से यात की होगी
वाल्मीकि रामायण - सुन्दर काण्ड, सर्ग-१०, श्लोक १०-१९ आगे चलकर मानुषी विभिन्न प्राकृत भाषाओं में परिवर्तित होने लगी। कहीं महाराष्ट्री तो कहीं शौरसेनी, कहीं गौड़ी तो कहीं विदर्भी, कहीं पालि तो कहीं मागधी, अर्द्धमागधी या अन्य प्राकृत भाषा का विभिन्न नामकरण होता गया । फिर प्राकृत भाषाओं से
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