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Vaishali Institute Research Bulletin No. 6 दुविहालंकारें विप्फुरंति, लीलाकोमलई पयाई दिति । महकन्व पिहेलणि संचरंति, वहाव भाव विन्मम घरंति । सुपसत्य अत्थें दिहि करंति, सव्वई विण्णाणई संमरंति । णीसेसदेसभासउ चवंति, लक्अइं विसिठ्ठई दक्खवंति ।
वायरणवित्ति पायडियणाम, पसियउ महु देवि मणोहिराम ॥ महाकवि का यह कथन उनकी भाषा-समृद्धि पर चरितार्थ हो जाता है। वास्तव में सरस्वती उनपर प्रसन्न हुई हैं, तभी वे अपभ्रंश भाषा के विविध रूप अपनी कृतियों में प्रस्तुत कर सके हैं।
१५. ( क ) भाटिया, कैलाश; "पुष्पदन्त की भाषा" नामक लेख, महावीर जयन्ती स्मारिका,
१९६२। ( ख ) मिश्र, सुदर्शन; "पुष्पदन्तकृत महापुराण की भाषा", वंशाली रिसर्च बुलेटिन नं० ५, १९८६, पृ० १०२-१०७ ।
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