Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 6
Author(s): L C Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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सारनाथ की जैन प्रतिमाएँ
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पट्ट प्राप्त हुए है, जिस पर तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ या अन्य कोई पूज्य आकृति जो इस धर्म से सम्बन्धित है, इन आयागपट्टों' को मन्दिरों में रखा जाने लगा। इस तरह से कुषाणकाल में ही इस परम्परा का विशेष रूप से विकास हुआ, जिसका विवरण साहित्य में मिलता है। उक्तिव्यक्तिप्रकरण में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग में जैन तीर्थंकरों में नग्नाचार्य रहा करते थे। इसी काल की कलात्मक विकास की रूपरेखा को गुप्त-काल में और चमत्कार बनाया गया, किन्तु सारनाथ से आयागपट्ट प्राप्त हैं ऐसा प्रमाण अभी तक प्राप्त नहीं हो पाया है।
___ सारनाथ के पास सिंहपुर (सिंहपुरी) जो उत्तर-पश्चिम में स्थित है, जहाँ से ११ वें जैन तीर्थंकर श्रेयांश नाथ का जन्मस्थान माना जाता है, इनके पिता इक्ष्वाकुवंश के राजकुमार विष्णु और माता विष्णुदेवी (वेणुदेवी) सिंहपुर के निवासी थे। जैन परम्परा के अनुसार बालक के जन्म से सम्पूर्ण राष्ट्र श्रेयकर हुआ इसलिए इस बालक का नाम श्रेयांश पड़ा । इस स्थान से और भी जैन तीर्थंकरों की खण्डित प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं जो अस्पष्ट हैं। सारनाथ में ही सिंहतुर का जन मन्दिर स्थापित है जहाँ पर श्रेयांग को अभी भी पूजा की जाती है । इस प्रतिमा का वर्ण सुनहरा गेंडा एवं गरुड लांछन है, और भी जैन प्रतिमाएँ जो वाराणसी से मिली हैं इस शैली से मेल खाती हैं, इन प्रतिमाओं में पार्श्वनाथ एवं सुपार्श्वनाथ जो तेइसवें तीर्थंकर थे, इनकी प्रतिमाएँ वाराणसी से प्राप्त हुई, इनमें सुपार्श्वनाथ का सुनहरा वर्ण एवं स्वस्तिक लांछन चिह्न है, पार्श्वनाथ का नीला वर्ण एवं सर्प फण लांछन है । पार्श्वनाथ की शासनदेवी शक्ति पद्मावती है जो मन्दिर में स्थापित है। इसका विशेष परिचय हस्तिमल द्वारा दिया गया है। पार्श्व आसनस्थ कायोत्सर्ग मुद्रा में ज्ञान और शतवर्ष की अवस्था निर्वाण पद प्राप्त होने का संकेत देते हैं। सारनाथ कला की एक महावीर की प्रतिमा जो छठी शतो ई० की भारत कला भवन में सुरक्षित है, प्रतिमा विश्वपद्म अलंकरण से युक्त
१. चन्दा आ० पी०, आ० रि०, १९२५-२६, पृष्ठ १८०; कुमारस्वामी, हिस्ट्री ऑफ इण्डिया
एण्ड इण्डोनेशियन आर्ट, पृष्ठ ३०, चि० २१ । २. बृहत्संहिता, ५७, ४५ ।
आजानुलम्बबाहुः श्रीवत्साङ्कः प्रशान्तमूर्तिश्च ।
दिग्वासास्तरुणो रूपवांश्च कार्योहतां देवः ॥ ३. उक्तिव्यक्तिप्रकरण, ४०, १० । ४. उत्तराध्ययनसूत्र, पृष्ठ १०३ ।
दीपेऽस्मिन् भारते सिंहापुराधीशीनरेश्वरः ।
इक्ष्वाकुवंशविख्यातो विष्णुनामाऽस्य वल्लभा । ५. हस्तिमल, जैन धर्म का मौलिक सिद्धान्त, पृष्ठ २८१-८२, घोष ए० (सं०); जैन आर्ट
एण्ड आक्टेिक्चर भा० १, पृष्ठ १८४ । ६. भारत कला भवन (वाराणसी), क्रमांक सं० १६१ ।
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