Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 6
Author(s): L C Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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समराइच्चकहा में सन्दर्भित प्राचीन बिहार
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यह संयोग की बात है कि इसके उपलब्ध सभी नाम पुष्पवाची रहे हैं। जैसे-कुसुमपुर', पुष्पपुर', पुष्पभद्र एवं पाटलिपुत्र। इन नामों से विदित होता है कि यह नगर प्रारम्भ से ही प्रकृति का प्रांगण रहा है ।
जैन-परम्परा के अनुसार पाटलिपुत्र की स्थापना कुणिक के पुत्र उदायि ने महावीरनिर्वाण के ६० वर्ष पश्चात् ई० पू० ४६७ में की थी।" उदायि ने पिता की मृत्यु के बाद शोकाकुल होकर चम्पा को छोड़ दिया तथा गंगा-किनारे हरे-भरे एवं पाटलि के पुष्पों को सुगन्धि वाले प्रदेश को मगध की राजधानी बनाया था जिसका नाम पाटलिपुत्र रखा । इस नगर की स्थापना के कुछ ही वर्षों बाद उदायि की किसी ने हत्या कर डाली। इस प्रकार सम्राट श्रेणिक की परम्परा समाप्त हो गई और उदायि की नापितगणिका का नन्द नामक पुत्र मगध की गद्दी पर बैठा । नौंवें नन्द का मन्त्री शकटाल था।'
जैन इतिहास एवं संस्कृति की दृष्टि से पाटलिपुत्र का विशेष महत्व है। यही वह भूमि है जहाँ प्रतापी सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य (प्रथम) ने जैन दीक्षा ग्रहण की थी। यहीं पर जैनागमों के संकलन-सम्पादन हेतु शकटालपुत्र स्थूलिभद्र की अध्यक्षता में प्रथम वाचना हुई, जो पाटलि. पुत्र-वाचना" के नाम से प्रसिद्ध है । गीता, कुर्रान, बाइविल एवं गुरु-ग्रन्थसाहिब के समान महान् पूज्य ग्रन्थराज-तत्वार्थाधिगमसूत्र की रचना भी उमा स्वातिवाचक ने यहीं पर की थी। यहीं पर स्थूलिभद्र ने जैनाचार्य पद धारण करने के बाद सुप्रसिद्ध मगध सुन्दरीकोशागणिका की रंग-विरंगी चित्रशाला में वर्षावास किया था और अपनी चारित्रिक दृढ़ता से प्रभावित कर उसे श्राविका-व्रत प्रदान कर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया था। कमलदह (गुलजारबाग स्टेशन के दक्षिण) स्थित एक भग्न खण्डहर आज भी उस घटना का स्मरण कराता रहता है ।
पालिपुत्र अपने समय का बहुत बड़ा व्यापारिक केन्द्र था। उसका सभी व्यापारिक केन्द्रों से सम्बन्ध था। यहाँ का बना हुआ माल स्वर्णभूमि तक जाता था।१४
१-४. दे० जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज (डॉ० जगदीश चन्द्र जैन) पृ० । ५. दे० विविध तीर्थकल्प (नाहटा) पृ० १५५ । ६. वही० पृ० १५५ । ७. वही० । ८. वही। ९. वही० । १०. भद्रबाहु चन्द्रप्रभ कथानक (कडवक १३) । ११. जैनागम सा० में वर्णित भारतीय समाज पृ० ४६२ । १२. दे० विविध तीर्थकल्प पृ० १५६ । १३. दे० वही० पृ० १५६ ।। १४. दे० जैन आ० सा० में भारतीय समाज पृ० ४६३ ।
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