Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 6
Author(s): L C Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
View full book text
________________
( 32 ) लालजी शास्त्री कटनी ( सम्प्रति कुण्डलपुर, म०प्र० ) से बात की थी तो उन्होंने उसे भारतीय ज्ञानपीठ आदि संस्थानों से प्रकाशित कराने हेतु आश्वासन दिया है और उनसे मेरा तद्विषयक पत्राचार चल रहा है ।
४. समयसार
कुन्दकुन्दाचार्य विरचित 'समयसार' का हिन्दी अनुवाद पण्डितजी ने किया था, ऐसा उन्हीं से ज्ञात हुआ था, किन्तु इसकी पाण्डुलिपि कहाँ, किसके पास है, इसकी मुझे जानकारी नहीं है। पण्डितजी के सुपुत्र श्रीमान् सुपार्श्वकुमार जैन ( राँची ) से इसकी जानकारी हो सकती है।
५. कषायपाहुड
इस ग्रन्थ की मूल गाथाओं का संकलन पण्डितजी ने किया था और वे उनका हिन्दी अनुवाद कर रहे थे। मेरे निजी ग्रन्थ संग्रह में 'कषायपाहुड' (जयधवला सहित) के १ से १५ भाग उपलब्ध हैं। अतः पण्डितजी अनेक बार मेरे निवास स्थान पर उक्त कषायपाहुड ग्रन्थों को देखने आये हैं। इसी क्रम में मैंने पं० सुमेरुचन्द्र दिवाकर (सिवनी) द्वारा अनूदित कषायपाहड की प्रति भी उन्हें दी थी, जिसका उन्होंने मिलान आदि की दृष्टि से उपयोग किया था। पं० दिवाकर जी द्वारा अनूदित कषायपाहुड से कार्य पूर्ण हो जाने पर पण्डितजी ने उक्त ग्रन्य मुझे वापस कर दिया था। इससे इतना तो निश्चित है कि कषायपाहुड पर किया जा रहा उनका कार्य प्रायः पूर्ण हो चुका था, किन्तु इसमें कुछ अपूर्णता भी रह गई हो तो कोई आश्चर्य नहीं है। क्योंकि सम्भवतः यह उनकी अन्तिम कृति है और इस कार्य को करते समय पण्डित जी में वृद्धावस्था के लक्षण प्रायः प्रकट हो चुके थे।
इस प्रकार उपर्युक्त पाँच ग्रन्थों में से प्रथम एवं तृतीय ग्रन्थ की पाण्डुलिपियाँ क्रमशः वर्णी संस्थान एवं मेरे पास सुरक्षित हैं। द्वितीय ग्रन्थ की पाण्डुलिपि जैनविद्या संस्थान, श्री महावीरजी ( राज० ) के अधिकारियों के पास होनी चाहिये । शेष अन्तिम दो ग्रन्थों की पाण्डुलिपियों के सन्दर्भ में उनके सुपुत्र श्रीमान् पार्श्वकुमार जैन ( राँची ) के पास जानकारी होगी अथवा पण्डितजी द्वारा अन्तिम समय में लिखी एवं विखरी पड़ी हस्तलिखित सामग्री में होना चाहिये । एतदतिरिक्त अन्य ग्रन्थों के सन्दर्भ में अन्य किसी विद्वान् अथवा पण्डितजी के पारिवारिक जनों को कोई जानकारी हो तो उसे प्रकाशित करनी चाहिये । जिससे अन्य अप्रकाशित सामग्री का भी विद्वज्जनों को लाभ मिल सके तथा श्रद्धेय पण्डितजी द्वारा किया गया परिश्रम व्यर्थ न हो।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org