Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 6
Author(s): L C Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No. 6
जैसे वे ही शस्त्र-अस्त्र हैं, जो कवि के समय में लोक प्रचलित थे। आज भी वे हरयाणा एवं दिल्ली प्रदेशों में उपलब्ध हैं और उन्हीं नामों से जाने जाते हैं। ये युद्ध इतने भयंकर थे कि लाखों-लाखों विधवा नारियों एवं अनाथ बच्चों के करुण-क्रन्दन को सुनकर संवेदन-शील कवि को लिखना पड़ा था
.........."दुक्करु होइ रणंगणु । रिउ वाणावलि पिहिय णहंगणु संगरणामु जि होइ भयंकरु तुरय-दुरय-रह-सुहड-खयंकरु । (पास० २।१४।३,५) वर्णन प्रसंग
कवि श्रीधर भावों के अद्भुत चितेरे हैं। यात्रा-मार्गों में चलने वाले चाहे सैनिक हों अथवा अटवियों में उछल-कूद करने वाले प्रेमी-प्रेमिकाएं हो अथवा आश्रमों में तपस्या करने वाले तापस, राज-दरबारों के सूर-सामन्त हों अथवा साधारण-प्रजाजन, उन सभी के मनोवैज्ञानिक-वर्णनों में कवि की लेखनी ने अद्भुत चमत्कार दिखलाया है। इस प्रकार के वर्णनों में कवि की भाषा भावानुगामिनी एवं विविध रस तथा अलंकार उनका अनुकरण करते हुए दिखाई देते हैं।
पाश्वं प्रभु विहार करते हुए तथा कर्बट, खेड, मैडव आदि पार करते हुए जब एक अवटी में पहुँचते हैं, तब वहाँ उदान्मत्त गजाधिप, द्रुतगामी हरिण, भयानक सिंह, घुरघुराते हुए मार्जार एवं उछल-कूद करते हुए लगूरों के झुण्ड दिखायी पड़ते हैं । इस प्रसंग में कवि द्वारा प्रस्तुत लंगूरों का वणन देखिए, कितना स्वाभाविक बन पड़ा है
... ... ... ... ... ... ... सिर लोलिए लंगूल ॥ केवि कूरु घुरुहुरहिँ
दूरत्थ फुरुहरहिँ ॥ केवि करहि ओरालि
णमुवंती पउरालि ।। केवि दाढ़ दरिसंति
अइविरसु विरसंति ॥ केवि भूरि किलकिलहिं
उल्ललेवि वलि मिलहिं ॥ केवि णिहय पडिकूल
महि हणिय लंगूल ।। केवि करु पसारंति
हिसणण पारति ॥ केवि गयण यलि कमहिं
अणवरउ परिभमहि ॥ केवि अरुण णयणेहि
भंगुरिय वयणेहिं ।। .... .... .... .... .... ... ..." तासंति अकयत्थ तसंति ॥ केवि धुणहिं संविसाण
कंपविय परपाण ॥ केवि दुट्ठ कुप्पंति
परिकहि झडप्पति ॥ केवि पहुण पावंति
डसणत्थु धावंति ।।
पास० ७।१४।४-१६ अन्य वर्णन-प्रसंगों में भी कवि का कवित्व चमत्कारपूर्ण बन पड़ा है। इनमें कल्पनाओं की उर्वरता, अलंकारों की छटा एवं रसों के अमृतमय-प्रवाह दर्शनीय हैं । इस प्रकार के वर्णनों में ऋतु-वर्णन, अटवी-वर्णन, सन्ध्या, रात्रि एवं प्रभात-वर्णन तथा आश्रम-वर्णन आदि प्रमुख
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