Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 6
Author(s): L C Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Resarch Bulletin No. 6
कुछ अनुश्रुतियों के अनुसार दो विदेशियों का सम्बन्ध भी राजगृही के साथ बतलाया जाता है । ईरान का एक राजकुमार आर्द्रक, जो कि श्रेणिकपुत्र अभयकुमार का परममित्र था', वह राजगही में आकर भगवान महावीर का प्रवचन सुनकर जैनधर्मानयायी बन गया था तथा उसने ईरान देश में अहिसा धर्म का प्रचार किया जो “कलन्दर-सम्प्रदाय"२ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। दूसरा विदेशी था-ईसा मसीह, जो अपने जीवन के प्रारम्भिक काल में मातापिता से रूठकर इसराइल से भारत चला आया था। सन्त प्रकृति का होने के कारण उसने भारत-भ्रमण कर सभी धर्मों का अध्ययन किया। इसी क्रम में वह राजगही भी आया था और वहाँ उसने जैन-बौद्ध धर्मों का अध्ययन किया था। स्वदेश लौटने पर जब उसने सुधारवादो धर्म का प्रचार करना चाहा, तभी उसे क्रूस पर लटका दिया गया ।
इस प्रकार जैन-साहित्य एवं अनुश्रुतियों में क्षितिप्रतिष्ठ अथवा राजगृही का रोचक वर्णन मिलता है। ये नाम-सन्दर्भ हरिभद्र के सम्मुख भी रहे होंगे। तद्विषयक नामावली में हरिभद्र को राजगृही की क्षितिप्रतिष्ठित नाम ही अधिक सार्थक एवं महिमापूर्ण प्रतीत हुआ होगा, अतः उन्होंने "समराइच्चकहा" में उसी का नाम उल्लेख किया । वसन्तपुर
प्रस्तुत नगर का उल्लेख करते हुए आचार्य हरिभद्र ने बतलाया है कि वहाँ सुपरितोष' नाम का एक सुन्दर तपोवन था, जिसमें अनेक तापस निराकुल होकर तपस्या किया करते थे। पुरोहित पुत्र अग्निशर्मा राजकुमार गुणसेन से अपमानित होकर एवं दुःखी हृदय से तापस की दीक्षा लेकर यहाँ पर जीवन व्यतीत करने लगा था।
उक्त नगर की अवस्थिति (Location) का पता नहीं चल सका है । हरिभद्र ने लिखा है कि राजा गुणसेन वसन्तपुर से जब क्षितिप्रतिष्ठितपुर लौटा, तब मार्ग में निरन्तर चलते रहने पर भी उसे एक मास का समय लग गया। अग्निशर्मा को भी क्षितिप्रतिष्ठितपुर से तपोवन तक पहुँचने में उतना ही समय लगा था। इनकी प्रतिदिन की चलने की गति को यदि १५ किलोमीटर मान लें तो उसको दूरी लगभग ४५० किलोमीटर होना चाहिए ।
'समराइच्चकहा' के अनुसार उस तपोवन में बकुल, पुनाग, अशोक, चम्पक एवं नाग आदि के सघन वृक्ष थे तथा वहाँ मृग, सिंह आदि स्वभाव-विरुद्ध जानवर विचरण करते थे । १-२. अहिंसा और उसका विश्वव्यापी प्रभाव (ले० डॉ० कामता प्रसाद जैन) पृ० ५२ एवं ५५ ३. दे. राजगृह पृ० १६ ४. दे० समरा० १११८ ५. दे. वही १।१४ ६. दे० समरा० १३१४ ७. दे० वही ८. दे० समरा० १।१४ । ९. दे. वही पृ० ११४६ ।
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