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है। अजमेर के पं. हेमचन्द्रजी द्वारा मुझे अजमेर की प्रति प्राप्त हुई थी। देहली के लाला पन्नालालजी अग्रवाल के द्वारा पंचायती मन्दिर देहली की धर्मरत्नाकर तथा श्रीदेवकृत टिप्पण की प्रति प्राप्त हुई। प्रतियों की प्राप्ति में पं. परमानन्दजी देहली से भी सहयोग मिला। अत: उन सभी विद्वानों का मैं हृदय से आभार स्वीकार करता हैं।
भारतीय ज्ञानपीठ के मन्त्री लक्ष्मीचन्द्रजी, तथा मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला के सम्पादक डॉ. हीरालालजी तथा डॉ. ए. एन. उपाध्ये कोल्हापुर का भी आभारी हूँ। उन्हीं के प्रयत्न से यह ग्रन्थ इस रूप में मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला से प्रकाशित हो सका है। डॉ. उपाध्ये ने तो इसकी रूपरेखा निर्धारित करने के सिवाय प्रारम्भ के लगभग आधे फार्मों के अन्तिम प्रूफों को देखने का भी कष्ट उठाया है। पं. बाबूलालजी फागुल्ल के सहयोग के लिए उन्हें भी धन्यवाद देता हूँ।
सबसे अन्त में मैं 'यशस्तिलक ऐंड इंडियन कल्चर' के विद्वान् लेखक श्री कृष्णकान्त हान्दिकी को और उसकी प्रकाशिका श्री जीवराज जैन ग्रन्थमाला के संचालकों को हृदय से धन्यवाद देता हूँ। उनकी उक्त पुस्तक को पढ़कर मुझे बड़ी प्रेरणा मिली। मेरी यह भावना रही कि इस पुस्तक का हिन्दी में अनुवाद प्रकाशित हो। मैंने इसके लिए एकाध बार जीवराज जैन ग्रन्थमाला के संचालकों को प्रेरणा भी की। किन्तु ऐसे विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थ का प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद प्रकाशित कर सकना कठिन था। मैंने उसके आवश्यक अंशों का भाव अपनी इस प्रस्तावना में दे दिया है; किन्तु उसमें मेरे अपने भाव भी सम्मिलित हैं इसी से मैंने डॉ. हान्दिकी का उल्लेख नहीं किया है। परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि मेरी प्रस्तावना का पूर्व भाग डॉ. हान्दिकी का ऋणी है। और उनके इस ग्रन्थ से मुझे अपने ग्रन्थ के सम्पादन में भी साहाय्य मिला है।
एक बार पुन: मैं अपने स्मृत और विस्मृत सहयोगियों को धन्यवाद देता हुए विज्ञ पाठकों से अपनी त्रुटियों के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ क्योंकि –'को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्रे'।
दशलक्षण पर्व 2490 जिनवाणीसेवक श्री स्याद्वाद महाविद्यालय कैलाशचन्द्र शास्त्री वाराणसी
(प्रथम संस्करण, सन् 1964 से)
12 :: उपासकाध्ययन