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[मु.] निर्णयसागर प्रेस से प्रथम बार मुद्रित प्रति को मु. संज्ञा दी गयी है। उक्त प्रतियों के सिवाय इस ग्रन्थ के संशोधन में दो अन्य प्रतियों का उपयोग परोक्ष रूप से किया गया है।
[अ] केकड़ी (राजस्थान) के पं. दीपचन्दजी पांड्या ने वीरसेवा मन्दिर सरसावा से प्रकाशित मासिक-पत्र अनेकान्त के 5वें वर्ष की 1-2 किरण में यशस्तिलक का संशोधन प्रकाशित किया
सार यह संशोधन दि. जैन बड़ा मन्दिर मुहल्ला सरावगी, अजमेर के अध्यक्ष, भट्टारक श्री हर्षकीर्ति महाराज की कृपा से प्राप्त प्रति के आधार से किया गया है। इस प्रति की पत्र संख्या 400 है और वि. सं. 1854 में लिखी गयी है। मैंने उन संशोधनों का भी उपयोग प्रकृत ग्रन्थ के सम्पादन में किया है और उन्हें 'अ' संज्ञा दी है।
[ब] संस्कृत विश्वविद्यालय में जैनदर्शन के प्राध्यापक पं. अमृतलालजी साहित्य के भी रसिक विद्वान् हैं। उन्होंने ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन, बम्बई की प्रति से अपनी यशस्तिलक पुस्तक में पाठान्तर लिये थे। उनका भी उपयोग मैंने इस ग्रन्थ के सम्पादन में किया है और उसे 'ब' संज्ञा दी है।
__ अनुवाद के सम्बन्ध में प्रकृत उपासकाध्ययन का अनुवाद कार्य कितना कठिन है इसका अनुभव मुझे पद-पद पर हुआ है। सोमदेव सूरि का पांडित्य अपूर्व था। वे तार्किक महाकवि आदि सभी कुछ थे जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है। नवीन शब्दों का उनके पास भंडार था। फिर वे साहित्यिक शैली की संयोजना में भी चतुर थे। उनकी इन सब विशेषताओं के कारण उपासकाध्ययन की पद रचना प्रसन्न होने के साथ दरूह भी हो गयी है। इसके सिवाय उन्होंने अपने उपासकाध्ययन में कछ ऐसे भी विषयों का समावेश किया है जिनकी चर्चा जैन शास्त्रों में नहीं पाई जाती। शैवदर्शन की प्रक्रिया ऐसे ही विषयों में है। शैव तन्त्र साधनों के ज्ञाता विद्वान् आज काशी में भी नहीं के तुल्य है। फलतः उससे सम्बद्ध श्लोकों का भाव स्पष्ट नहीं हो सका और ऐसे दो श्लोकों का अर्थ जो ध्यान विधि में आये हैं छोड़ देना पड़ा है। जहाँ तक शक्य हुआ मैंने ग्रन्थ के भाव को स्पष्ट करने में अन्य विद्वानों का भी निःसंकोच साहाय्य लिया; फिर भी यह लिखने में असमर्थ हूँ कि मुझे अपने अनुवाद से पूर्ण सन्तोष है या मेरा अनुवाद निर्दोष है। ___ उपासकाध्ययन में आगत कथाओं का मैंने शब्दशः अनुवाद नहीं किया है; भावानुवाद ही उसे समझना उपयुक्त होगा।
आभार प्रदर्शन अन्त में मैं इस ग्रन्थ के सम्पादन आदि में साहाय्य देने वाले अपने सब सहयोगियों का आभार स्वीकार करना अपना परम कर्तव्य मानता हूँ। सबसे प्रथम आभार तो मैं उन विद्वानों का मानता हूँ जिन्होंने मुझे इस ग्रन्थ के सम्पादन में साहाय्य दिया। पं. अमृतलालजी से मुझे बहुत साहाय्य मिला और उनके साहित्यिक ज्ञान से मैं लाभान्वित हुआ। केकड़ी के पं. रतनलाल जी कटारिया अभी नवयुवक हैं, मेरा उनसे साक्षात् परिचय तो गत मई मास में भीलवाड़ा में हुआ। उन्हें देखकर कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि इस दुबले-पतले नवयुवक में इतना अनुभवपूर्ण ज्ञान वर्तमान है। उन्होंने से मुझे लम्बे-लम्बे पत्रों के द्वारा अनेक श्लोकों को स्पष्ट करने में निःसंकोच मदद दी। उन्हीं से मुझे प्रबोधसार और धर्मरत्नाकर ग्रन्थों की सूचना प्राप्त हुई कि इन ग्रन्थों में उपासकाध्ययन का अनुकरण किया गया है या उसके श्लोक उद्धृत हैं।
इसी तरह केकड़ी के ही दूसरे विद्वान्, पं. दीपचन्द्रजी पांड्या से भी मुझे साहाय्य मिला
सम्पादकीय :: 11