________________
डा० राजेन्द्रप्रसादजी ने इस पुस्तक के सम्बंध में सम्मति-रूप में दो शब्द लिख कर इसे सम्मानित किया था।
और, फिर भगवान् के जीवन से सम्बद्ध स्थानों की खोज करके आचार्यश्री ने अपनी दूसरी पुस्तक 'वीर-विहार-मीमांसा' लिखी। ___इन दोनों पुस्तकों के प्रकाशन से रूढ़िवादी जैन-जगत में बड़ा तहलकासा मच गया। आचार्यश्री से अनुरोध किया गया कि वे अपनी पुस्तकें वापस ले लें और उनका प्रचार रोक दें। पर, आचार्यश्री एक सच्चे साधु और सत्यान्वेषक के रूप में अडिग बने रहे।
वस्तुतः यही तीर्थंकर महावीर' लिखे जाने की पूर्वपीठिका थी।
भगवान् महावीर के जीवन-सम्बधी अपने भौगोलिक अनुसंधानों को समाप्त करने के बाद, आचार्यश्री भगवान महावीर का जीवन-चरित्र लिखने के लिए प्रयत्नशील हुए। उनका विचार, उसमें जहाँ भगवान् के जीवनसम्बंधी ऐतिहासिक विवेचनों की ओर था, वहीं वे यह भी चाहते थे, उनके जीवन के सम्बन्ध में विवाह आदि विवादग्रस्त स्थलों से सम्बन्धित समस्त प्रमाण आदि एकत्र करके पुस्तक को विश्व-कोष का ऐसा रूप दिया जाये, जो भावी अनुसंधानकर्ताओं के लिए सहायक सिद्ध हो सके । इस विषद् कार्य में जो व्यय पड़नेवाला था, उसकी सुविधा उन्हें दिल्ली में प्राप्त न हो सकी। इसी बीच बम्बई के एक सेठ एक दिन आचार्यश्री के निकट वंदना करने आये । आचार्यश्री की योजना सुनकर उन्होंने आचार्यश्री को बम्बई पधारने की विनती की और आश्वासन दिया कि आचार्यश्री को अपने काम के लिए समस्त सुविधाएँ बंबई में प्राप्त हो जाएंगी।
उनकी विनती स्वीकार करके आचार्यश्री ने '४ दिसम्बर १९५५ को दिल्ली से विहार किया और १४ जुलाई १९५६ को दिल्ली से बम्बई तक की पैदल यात्रा इस लम्बी उम्र में पूरी की और अपना चातुर्मास उन्होंने भायखला में किया।
भायखला में महीनों बीत गये, पर काम करने की जो लालसा लेकर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org