________________
( ८ )
कि हे महाराज ! आप समर्थ हैं अतः यह ग्रन्थ आपही बनाइये ?, उस श्रावककी इस विनतिको स्वीकार कर उमास्वातिजीमहाराजने यह शास्त्र बनाया है । इस विषय में कितने को यह जिज्ञासा जरूर रहती है कि वह श्रावक किस गांव का और उसका नाम क्या था ?, एवं उस श्रावकको प्रतिदिन एक सूत्र बनानेका जो नियम था उसका क्या हुआ ? किन्तु इसका स्पष्ट खुलासा नहीं मिलता है, जैनशासन में प्रसिद्ध ऐसे सम्यग्दर्शनादि में से सम्यग्दर्शनादिमें से सम्यक्पदको उस श्रावकनें क्यों निकाल दिया ? और जब यही सूत्र सारे ग्रन्थके आदिका है तो फिर आदिभाग में 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' यह श्लोक किसने लगा दिया ?
कितनेक लोगोंका तो कहना है कि मोक्षमार्गका श्लोक तत्रार्थ में शुरू से ही नहीं था, और इसीसे वार्त्तिककारने इस श्लोकका स्पर्श भी * नहीं किया है, इस श्लोक की व्याख्या सर्वार्थसिद्धिमें भी नहीं है, इससे मालूम होता है कि यह श्लोक तत्वार्थ के अन्तर्गत ही नहीं है ।
आद्य
श्लोक
श्वेताम्बरलोग इस श्लोक की व्याख्या न तो अपनी टीकाओं में करते हैं और न इस श्लोकका तत्वार्थ के अन्तर्गत ही मानते हैं | श्वेताम्बरांका कहना है कि यदि यह श्लोक तच्चार्थ का होता तो पेश्तर उसमें आभिधेयादि निर्देश होता,
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International