Book Title: Tattvartha Kartutatnmat Nirnay
Author(s): Sagranandsuri
Publisher: Rushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha

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Page 176
________________ (१६५) स्वाभाविकभाषा गिन सकते हैं. प्राकृतशब्दका अर्थ भी भाषाका स्वाभाविकपन दिखाता है. इतना होने परभी जमानेके प्रभावसे जब संस्कृतभाषाकी ओर लौकिकविद्वद्गण झुका और लोगोंकी अभिरुचि संस्कृतकी ओर बढी, अंतमें संस्कृतमें ही विद्वत्ता की अपूर्वता गिननमें आई. तब श्रीमान् उमा स्वातिवाचकजीको भी जैनमहत्ताके लिए तत्त्वार्थस्त्र संस्कृतभाषामें करना जरूरी मालूम हुआ। Pos पूर्वतरकालीन जैनसूत्रोंकी रचना दर्शन ज्ञानादि आत्माका स्वरूप है और आश्रवादि विकार हैं. जिससे आश्रवादिसे हट जाना । छाया.... और ज्ञानादिके लियही कटिबद्ध होना इसी उद्देशसे की जाती थी, और इसी सबबसे भव और मोक्षमें भी आखिर उदासीनताही रहती थी, इसी सबबसे तो केवली. महाराजको संकल्प विकल्प रहित मानते थे, लेकिन सांख्य, नैयायिक, मीमांसा, वैशाषक और बौद्ध वगैरहने जब अपने शास्त्र मोक्षके उद्देशसे बनाये और लोगोंकी अभिरुचि भी वैसी हुई तो श्रीमान् उमास्वातिजीको भी उसीतरहसे इसकी रचना करनी आवश्यक मालूग हुई. इसीसे ही श्रीमान्ने 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' ऐसा आदिमें ही भोक्षका उद्देश करके सूत्र बनाया. . ...... ०००००००००००००० Coces0000000000 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org .

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