Book Title: Tattvartha Kartutatnmat Nirnay
Author(s): Sagranandsuri
Publisher: Rushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha

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Page 178
________________ (१६७) चक्षु और मनकी अप्राप्यकारिता स्पष्ट कर दी, यह भी दार्शनिकसिद्धान्तके प्रचारके सबबसे ही संभवित है. क्योंकि बौद्धोंका मन्तव्य चक्षु मन और श्रोत्रकी अप्राप्यकारिताका है, और नैयायिकादिकोंका मन्तव्य ऐसा है कि स्पर्शनादिकी तरह चक्षु भी प्राप्यकारी ही है. वाचकजीने तो साफ कह दिया कि, चक्षु और मन ये दोनों ही अप्राप्यकारी हैं, और स्पर्शनादि चार प्राप्यकारी ही है। ६ दूसरे दर्शनकारोंने पिटक और वेदादिके लिए प्रामाणिकताका नाद चलाया था, तब वाचकजीने श्रुतके अधिकारमें आचारांगादिक अंग और तद्व्यतिरिक्त आहेतवचनोंकी प्रामाणिकता प्रतिष्ठित की। - ७ दूसरे दर्शनकारोंने विपर्यास और संशयादिकको मिथ्याज्ञान और अज्ञानशब्दसे पुकारा है, तब वाचकजीने जिसकी धारणा पदार्थोंके लिए यथास्थित नहीं है और सदसत्के जो एकान्तवादी हैं इन सभीका बोध अज्ञान ही है, ऐसा दिखाया है. याने पवित्रमन्तव्यको मान्य करनेवाले मनुष्यके संशय विपर्यासवाले ज्ञानसे भी पवित्रपदार्थको नहीं माननेवालेकी अकल या शास्त्रीयप्रवीणता उन्मार्गकाही वर्धन करानेवाली है, इतना ही नहीं, बल्कि वैसेको किसी पौद्गलिकपदार्थका अतीद्रिय ऐसा विभंगज्ञान भी हो जाय तब भी वह ज्ञान उस महात्माको और उसके उपासकोंको संसारकी ओर गिराने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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