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करनेवालेकी तरफसे यह भेद हुआ है कि दो सूत्र करनेवाले दिगम्बरों की तरफसे यह भेद हुआ है।, दिगम्बरोंके हिसाबसे सोचें तब तो समग्र कर्मका विनाश होवे उसीमें बन्धहेतुका अभाव
और निर्जरा ये दोनों कारण होते हैं. याने मोह ज्ञानावरण दर्शनावरण और अंतरायके क्षयके कारणमें बन्धहेतुका अभाव
और निर्जरा समाविष्ट नहीं किये हैं, क्योंकि दिगम्बरोंने 'बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां' इस वाक्यको न तो स्वतन्त्र सूत्रके रूपमें रखा है और न 'मोहक्षयात.' इत्यादिसूत्र में लगाया है. याने समग्रकर्मके क्षयरूप मोक्षको प्रतिपादन करनेवाले सूत्रमें मिला दिया है. यदि ऐसी शंका होगी कि जैसे दिगबरोंके हिसाबसे बंधहेतुके अभावादि कारण मोक्षके साथ लगेंगे
और मोहक्षयादिके साथ नहीं लगेंगे, वैसेही श्वेताम्बरोंके हिसाबसे भी बन्धुहेतुके अभावादि कारण केवल मोहक्षयादिके साथ ही लगेंगे, लेकिन मोक्षके साथ नहीं लगेंगें. परन्तु यह शंका करना लाजिम नहीं है. कारण कि असल में तो दोनों ही -फिरकेवाले यह मंजूर करते ही हैं कि संसारकी असली जड चारघातिकर्म और उसमें भी असल में मोहनीयकर्म ही है,
और मोहनीयादिकके क्षयमें बन्धहेतुका अभाव और निर्जरारूप कारण दिखानेकी जरूरत है, दूसरी बात यह भी है कि किसी भी कर्मकी स्थिति बांधना होवे तो उसमें मोहनीयकी ही जरूरत है, और मोहनीयका अभाव होजानेसे किसी भी
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