Book Title: Tattvartha Kartutatnmat Nirnay
Author(s): Sagranandsuri
Publisher: Rushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha

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Page 171
________________ (१६०) उसमें किसीभी तरहकी हरज नहीं है, असलमें सूत्रके अधिकारी होने परभी आद्यसे ही सब कोई सभी सूत्रके अधिकारी नहीं होते हैं. इससे आद्याधिकारियों को फायदा पहोंचाना यह इस ग्रंथका उद्देश्य है. दूसरा मुद्दा यह भी है कि आपके कथनसे भी यह बात तो स्पष्ट है कि इस तत्त्वार्थमें कहे हुए विषय श्रीगणधरप्रणीत. सूत्रोमें है लेकिन विप्रकीर्ण है, तो ऐसे विप्रकीर्णपदार्थको. एकत्र करके कहना यह कमउपयोगी नहीं है. तीसरा मुद्दा यह भी है कि सूत्रोंमें जहां जहां पदार्थों का स्वरूप कहा है वहां बडे बडे विस्तारसे. और सागपूर्णतासे कहा है. और सब विद्यार्थिगण ऐमा बिस्तारयुक्त और सर्वांगपूर्ण तत्व अवधारण करनेको समर्थन होवे, इससे वैसे के लिए ऐसा लघुसंग्रह बनानेकी जरूरत कम नहीं है. चौथा मुद्दा यहभी है कि शास्त्रोंमें जिसरूपसे जीवाद्रिक तचोंका स्वरूप कहा गया है उससे इधर कुछ औरही रूपसे जीवादितत्त्व कहे हैं, याने जैसा इधर सम्प्रदर्शनादिकक्रमसे जीवादि पदार्थ निरूपित हैं वैसा क्रम किसीभी सूत्र में नहीं है. पांचवें मुद्देमें अभ्यासियोंको मुखपाठ करने में लघु सूत्र होने से बड़ी सुभीता रहती है, खुद गणधर महाराजाओंनेभी भगवतीजीआदिसूत्रोके शतकउद्देशकी आदिमें संग्रह दिखाया है. और श्रीसमवायांगजी और नन्दीजीमें आचारांगादिकसूत्रकी संग्रहणी और श्रीपाक्षिकसूत्रमें भी कालिक उत्कालिक सभीकी संग्रहणी कही है, इससे सबका संग्रह यह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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