Book Title: Tattvartha Kartutatnmat Nirnay
Author(s): Sagranandsuri
Publisher: Rushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha

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Page 170
________________ ( १५९ ) कर्मके भेदोके लिए स्थानांग प्रज्ञापना भगवती कर्मप्रकृत्यादि, कर्मोकी स्थिति के लिए स्थानांग समवायांग प्रज्ञापनादि, संवरके लिए उत्तराध्धयन दशवैकालिंक आचारांगादि, परीषहके लिए उत्तराध्ययनभगवत्यादि, तपस्या के लिए उत्तराध्ययन औपपातिक स्थानांग भगवत्यादि, ध्यानके लिए आवश्यकनिर्युक्ति औपपातिक स्थानांगादि, निर्ग्रथोंके स्वरूपके लिए भगवती उत्तराध्ययन स्थानांगादि, मोक्ष के लिए औपपातिक प्रज्ञापनादि, इन सबकी मतलब यह है कि श्रीमान् उमास्वातिवाचकजीने तत्त्वार्थ सूत्र में जो हकीकत कही है वे सूत्रों में अनुपलब्ध नहीं है, तब ऐसा है तो पीछे ऐसा अलग सूत्र करनेकी क्या जरूरत थी ? ऐसा अलग सूत्र बनानेसे तो विद्यार्थिलोग इससे ही संतुष्ट हो जायेंगे और आगे सूत्र देखने का प्रयत्न नहीं करेंगे और ऐसा होनें से सूत्रकारगणधर महाराजकी अवज्ञा होगी. देखते भी हैं कि दिगंबरलोग इसी तन्त्रार्थको मंजुर करते हैं और सब सूत्र सिद्धांतोंको उडा देते हैं. यदि वाचकजी महाराजने यह नहीं बनाया होता तो दिगं बरोंको ऐसा सूत्रापलापका महापाप अंगीकार करने का मौका नहीं भी आता, पूर्वोक्तशंकाके समाधान में पेश्तर तो यही समझ लेना योग्य है कि जैनों में न तो 'पूर्वपूर्वमुनीनां प्रामाण्यं' ऐसा नियम है, और न. 'उत्तरोत्तरमुनीनां प्रामाण्यं' ऐसा नियम हैं, किन्तु पूर्वापर अविरुद्ध स्याद्वादमय पदार्थको मानना यही नियम हैं. इससे श्रद्धालुओं को तो पदार्थ सूत्रमें से मिले या दूसरे ग्रंथोसे मिले Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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